बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी अपने साथ ले जाने लगा।
‘कैसे हाथ-पाँव टेढ़े-मेढ़े कर चौक के कोने में बैठना है, आदमी देख कैसे ढीला-सा मुँह बनाना है। लोगों को बुद्धू बनाने के लिए दया का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है। ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिंघल जाए और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।’
वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता, वैसा बनने की कोशिश भी करता रहा। फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा, “जा, अब तू खुद ही भीख माँगा कर।”
पुत्र शाम को घर लौटा। आते ही उसने अपनी जेब से रुपये निकाल कर पिता की ओर बढ़ाए, “ले बापू, मेरी पहली कमाई…।”
“हैं! कंजर पहले दिन ही सौ रुपये! इतने तो कभी मैं आज तक नहीं कमा कर ला सका, तुझे कहाँ से मिल गए?”
“बस ऐसे ही बापू, मैं तुझसे आगे निकल गया।”
“अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली?”
“नहीं, बिलकुल नहीं।”
“अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ आने-रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं…तुझ पर किस देवता की मेहर हो गई?”
“बापू, अगर ढंग से माँगो तो लोग आप ही खुश हो कर पैसे दे देते हैं।”
“तू कौन से नए ढंग की बात करता है, कंजर! पहेलियाँ न बुझा। पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा। बेटा, अगर भीख माँग कर गुजारा हो जाए तो चोरी-चकारी की क्या जरूरत है। पल भर की आँखों की शर्म है…हमारे पुरखे भी यही कुछ करते रहे हैं, हमें भी यही करना है। हमारी नसों में भिखारियों वाला खानदानी खून है…हमारा तो यही रोज़गार है, यही कारोबार है। ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं? तू आदमी बन जा…।”
“बापू, आदमी बन गया हूँ, तभी कह रहा हूँ। मैने पुरानी रिवायतें तोड़ दी हैं। मैं आज राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी करके आया हूँ। एक कॉलोनी में किसी का मकान बन रहा है। उन्होंने शाम को मुझे सौ रुपये दिए। सरदार कह रहा था, रोज आ जाया कर, सौ रुपये मिल जाया करेंगे…।”
पिता हैरान हुआ ! कभी बेटे की ओर देखता, कभी रुपयों की ओर। यह लड़का कैसी बातें कर रहा है! आज उसकी खानदानी रियासत में भूकम्प आ गया था, जिसने सब कुछ उलट-पलट दिया था। |