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लघुकथाएँ - देश - धर्मपाल साहिल





व्यापार - धर्मपाल साहिल


मैं अपना चैकअप करवाने के लिए मैटरनिटी होम गई तो कई महीनों के बाद अचानक वहां अपनी कुँआरी सहेली मीनो को जच्चा–बच्चा वार्ड में दाखिल देखकर हैरानी से पूछा ‘‘मीना,तू यहाँ? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई तेरे साथ?’’

‘‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं, बस मैंने खुद ही अपनी कोख किराए पर दे दी थी।’’उसने चेहरे पर मुस्कराहट लाते हुए कहा।

‘‘ऐसा क्यों किया तूने?’’मैंने हैरानी से पूछा।

‘‘तुझे तो पता ही है कि मेरा एक सपना था कि मेरी आलीशान कोठी हो। अपनी कार हो, ऐशोआराम की हरेक चीज हो।’’

‘‘फिर तूने यह सब कैसे किया?’’

‘‘मैंने अखबार में एक इश्तिहार पढ़ा। पार्टी से मुलाकात की। एग्रीमेण्ट हुआ, नौ महीने के लिए कोख का किराया एक लाख रूपए प्रति माह के हिसाब से। बच्चा होने तक मेरी सेहत व निगरानी का खर्च उनका।’’

‘‘इसलिए तूने गैर मर्द के साथ....।’’

‘‘नहीं–नहीं–डॉक्टरों ने फर्टिलाइज्ड एग ऑपरेशन द्वारा मेरी कोख में रख दिया। समय–समय पर मेरा चैकअप कराते रहे। आज पूरी पेमेण्ट करके बच्चा ले गए है।’’

‘‘ना, अपनी कोख से जन्मे बच्चे के लिए तेरी ममता नहीं तड़पी, तुझे जरा भी दुख नहीं हुआ?’’

लेकिन मेरी बात को हँसी में उड़ाते हुए कहा, ‘‘बस इतना–सा दुख हुआ। जितना एक किराएदार द्वारा मकान छोड़ देने के समय होता है।’’



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