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लघुकथाएँ - देश - मनमोहन कौर
कृपा

दीपा के विवाह को तीन वर्ष हो गए थे। पर अभी उसके आँगन में बच्चा नहीं था। दीपा कभी पूजा पाठ में विश्वास नहीं किया था, पर उसकी सास उसे किसी संत–महात्मा के पास ले जाने के लिए मजबूर करती।
‘‘दीपा बेटे, मेरी इच्छा है कि मैं अपने इकलौते बेटे के घर बच्चा देखूं।’’ एक दिन सास ज्यादा मजबूर करने पर दीपा ने हाँ कर दी। डरी–सहमी दीपा संतों के डेरे जा पहुँची। काफी समय इंतजार करने के बाद सास के साथ अंदर कमरे में दर्शन के लिए गई। संतों के साथ उसकी सास ने वार्ता की। इतने में संतों के शिष्यों ने ना मालूम उसे किस चीज का धुआँ देना शुरू कर दिया। पता नहीं धुएँ में क्या मिला हुआ था कि उसकी आँखें धीरे–धीरे बंद होनी शुरू हो गई। उसके दिमाग में पीले–पीले रंग तैरने शुरू हो गए।
दीपा जब होश में आई तो उसे अपना सिर भारी भारी लगा। बदन टूटता सा महसूस हुआ। कमरे में हल्का सा अंधेरा था। उसने मिचमिचाती आँखों को जोर लगा कर खोलने की कोशिश की। अपने आप को नग्न अवस्था में पाकर, उसकी एकदम चीख निकल गई। उसने चकराते सिर से जल्दी–जल्दी कपड़े पहने और बाहर निकल आई। उसकी सास घुटनों में सिर दिए बैठी थी, रोती आँखों से अपनी सास की तरफ घूरकर देखा। सास ने उसे गले लगा लिया। दीपा सुबक सुबक कर रोने लगी।
‘‘हिम्मत कर बेटा औरत को औलाद की खातिर पता नहीं क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं। तेरा पति भी तो संतों की कृपा से हुआ है।’’ ब‍र्फ़ हुई दीपा धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी।
अनुवाद–श्यामसुंदर दीप्ति

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