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लघुकथाएँ - देश - निरंजन बोहा
अपनी मिट्टी

महानगर के सरकारी दफ्तर में एक क्लर्क से दूसरे क्लर्क की सीट पर चक्कर काटते,सरपंच जगीर सिंह सुबह से ही परेशान था। धँसी- सी नाक वाला डीलिंग क्लर्क डाल पर टूट ही पड़ा था, ‘‘बाबा! जब तुझे कहा है भई दो दिन बाद आना, पर तू पीछा ही नहीं छोड़ता।’’
गाँव में सरदार कहलाने वाला सरपंच उसके सामने बेचारा- सा बनके रह गया था। भीड़–भाड़ वाले इस महानगर में अजनबी लोगों के बीच घिरे हुए, उसे महसूस हो रहा था जैसे उसका अपना कोई दायित्व ही न हो।
ज्यादातर वह अपनी पंचायत के सचिव या अपने कालेज पढ़ रहे बेटे को ही सरकारी दफ्तर के काम के लिए भेजता था। पर आज उसे किसी खास काम के लिए आप ही महानगर आना पड़ा था। इस शहर का प्रत्येक व्यक्ति उसे भाग–दौड़ में दिखाई दे रहा था जैसे उससे बात करने की किसी के पास फुर्सत ही न हो। भीड़ में घिरे हुए, अपने आप को अकेला महसूस करने का इतना तीव्र अहसास उसे पहले कभी नहीं हुआ था। इसलिए वह जल्दी से गाँव लौट कर अपनी खोई पहचान हासिल करना चाहता था।
‘‘बस स्टैड को किस नम्बर की बस जाएगी?’’ उसने सड़क किनारे खड़े एक बाबू से पूछा।
‘‘आगे से मालूम करो।’’ रूखा-सा जवाब पा कर, पहले से ही परेशान सरपंच अब तो बिल्कुल बेचैन हो उठा। आगे जा कर पूछने की हिम्मत उसमें न रही। बस का इन्तजार करने की बजाए उसने रिक्शे वाले को आवाज दी और बिना पैसे पूछे ही रिक्शे पर बैठ गया। उसने सोचा,झगड़ा करने की बजाए, रिक्शेवाला जितने पैसे मांगेगा, वह दे देगा। अपने आप में उलझा,उसे पता ही न चला कि कब बस स्टैंड आ गया।
‘‘हाँ भई! कितने पैसे,’’ उसने अपना बटुआ खोलते पूछा!
‘‘पैसे रहने दो सरदार जी।’’ रिक्शे वाले ने उसका बैग उतारते कहा इस पराए शहर में इतने अपनत्व भरे शब्दों की तो उसे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। वह अचंभित –सा रह गया। उसने हैरानी से रिक्शेवाले की तरफ देखा। यह तो उसके ही गाँव का लड़का प्रीतू था, जो पाँच साल पहले घर से भाग आया था।
‘‘अरे प्रीतू तू’’ सरपंच ने उसे बाँहों में भर लिया।
प्रीतू हैरान था कि गाँव में इतने रूखे स्वभाव वाला सरदार यहाँ आकर इतना मुलायम व नर्म कैसे बन गया।
अनु–दीप्ति

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