तीसरी बार यह पैंट मेरे सामने आई है। लगभग दस वर्ष पूर्व जब मैं इस दुकान में पहली बार सिलाई करने बैठा था तब सामने वाली झोंपड़पट्टी बस्ती का एक रिक्शा चालक एक रेडीमेड पैंट लेकर आया था और मुझे आग्रह किया था कि मैं इस पैंट को सिलकर पहनने लायक बना दूँ। अगले दिन उसकी शादी थी।
दूसरी बार एक औरत इस पैंट को छह–सात साल पहले लेकर आई थी और बोली थी–‘‘पैंट का रंग उड़ गया है, इसको पलटकर सिल दो। वे कई दिनों से बीमार हैं। पिछले महीने हमारा लड़का हुआ है। कल ही पीहर से छूछक लेकर आने वाले हैं....’’
और,आज फिर! उसी पैंटको लेकर यह लड़का आया है। कह रहा कि ‘‘पिताजी नहीं रहे। माँ झाड़ू पोंछा से इतना नहीं कमा पाती कि मैं नई ड्रेस सिलवा सकूँ। कल स्कूल जाना है, इस पैंट को काटकर मुझे एक निकर बना दो....’’
और, मैं उसी पैंट को सिलने बैठ गया हूँ।