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लघुकथाएँ - देश - आरती झा
छत्रछाया

सबको कलुआ की आदत -सी पड़ गई थी। कलुआ यानी गोपाल। हमने उसका नाम गोपाल रख दिया था। वह पूरे घर का चहेता बन गया था। घर के सभी काम सीख गया था। गोपाल.....गोपाल के नाम से घर गूँजता रहता था। मामा ने उसे ए बी सी डी और अपना नाम लिखना सिखा दिया था। नाना–नानी की गाड़ी तो उसके बगैर आगे बढ़ती ही नहीं थी।
सबकुछ ठीक ही चल रहा था कि अचानक उसका पिता उसे लेने आ धमका। नानी माँ के लाख कहने पर भी वह नहीं माना। गोपाल के न रहने से सबको दिक्कत होने लगी थी। एक विचित्र -सा सूनापन घर में पसर गया था। नानी माँ तो अक्सर दुखी होकर उसे याद करने लगती थी। सभी उसे याद करके कुछ न कुछ कहते ही रहते थे–
‘‘पता नहीं कैसा होगा गोपाल! जरूर उसे किसी होटल में लगा दिया होगा।’’
‘‘वहाँ चौबीस घंटे में उन्नीस घंटे खटता होगा बेचारा।’’
‘‘अपना नाम भी लिखना भूल गया होगा।’’
‘‘पैसे की भूख इंसान को क्या से क्या बना देती है।’’
‘‘उसका बाप कसाई है कसाई!’’
‘‘अरे! हमारे यहाँ ट्रेनिंग के लिए दे गया था। काम सीख गया तो भेज दिया दिल्ली!’’
‘‘यह लोग तो बच्चे पैदा ही करते हैं इसलिए कि कमा कर ज्यादा से ज्यादा दे सके।’’
‘‘गोपाल की भाषा भी बदल गई होगी,बीड़ी सिगरेट भी पीता हो तो क्या पता?’’
तभी अप्रत्यशित बात हुई।
नानी के हाथ में एक खत था जिसे वह हैरानी से देखे जा रही थीं। उन्होंने आवाज देकर सबको इकट्ठा कर लिया। जो भी उस खत को देखता .....उसका चेहरा बुझ- सा जाता।
उनकी छत्रछाया से दूर जाकर भी कोई इतनी तरक्की कर सकता है, यह बात उनकी समझ से परे थी। मोती जैसे अक्षरों में लिखा गया गोपाल का खत उन सबको मुँह चिढ़ा रहा था।

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