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लघुकथाएँ - देश - सुशील राजेश
इसलिए

आज की डाक से जब उसे एक प्रकाशन संस्थान से इंटरव्यू लेटर मिला तो एकबारगी वह स्तब्ध रह गया। एक लंबे अरसे से वह बेरोजगारी का बोझ ढोते–ढोते हाँफने लगा था। इस बीच न जाने कितने अनाप–शनाप विचार उसके दिमाग में आए पर किसी छोटे समझौते के लिए उसने जलालत को स्वीकार न कियां इसी पशोपेश में फंसा जब वह उस संस्थान में घुसा तो उसके वैभव को देखकर उसे अपने बौनेपन का अहसास हुआ।
एक तरफ जहाँ और भी प्रत्याशी बैठे थे। दुबककर बैठ गया।
‘‘राकेश कुमार....।’’
वह उठा।
उसके भीतर खट्–खट् करके कुछ बज रहा था।
‘‘बैठिए....’’
‘‘थैंक्यू सर,’’
‘‘मि. राकेश! आप लिट्रेचर में पी.एच.डी. है, गोल्ड मैडेलिस्ट हैं, फिर यह चार–पाँच सौ की मामूली सी नौकरी....और महानगर में....?’’
‘‘सर! दरअसल मैं अब सैटल होना चाहता हूं, आखिरी कोई कब तक किसी का कर सकता है...!’’
‘‘पर सैटल होने का यह अर्थ नहीं कि आप किसी भी घटिया काम के लिए अपने को तैयार करें....!’’
‘‘यह आप कैसे कह सकते है कि...’’ वह बौखला गया था।
‘‘यू कैन गो...।’’ चश्मा उतारकर साहब आंखें के बीच की जगह को दबाकर कुछ सोचते हैं और फिर निर्णय लिखने लगे, ‘‘जो शख्स मेरी इतनी - सी बात पर भड़क सकता है, मुझे डर है कि कल यही कंपनी में यूनियनबाजी भी कर सकता है। इसलिए....’’
वह आज भी बेरोजगार है।

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