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लघुकथाएँ - देश - आशीष दलाल
दायित्व बोध

शहर में अचानक ही किसी झगड़े ने बढ़कर दंगे का रूप ले लिया था। काफी प्रयासों के बाद भी स्कूल से निकले मेरे दस वर्षीय लड़के का पता न चल पाया। मैं उसे खोजने स्कूल की ओर निकला तभी पत्नी ने टोका, ‘सुनो मिसेज वर्मा के बच्चों को भी लेते आना। मि. वर्मा टूर पर गए हैं। बेचारी कहां भटकेगी?’
ओफ! ‘ओफ़्फ़ो ! यहाँ अपनी जान आफत में है और तुम्हें दूसरों की पड़ी है।’ मैं खीज उठा। तभी एक दुबला पतला युवक मेरे लड़के को घर लेकर आया। अपने बच्चे को सही सलामत घर आया देखकर मैं खुशी से झूम उठा। उसका शुक्रिया अदा करते हुए मैंने कहा, ‘अभी यहां रुक जाओ। स्थिति काबू में आ जाए, तब चले जाना।’
‘‘अरे नहीं। तब तक बहुत देर हो जाएगी। अभी और कितने ही मासूमों को मेरी जरूरत है।’’ उसने जवाब दिया और चल पड़ा।
मैं बिना एक पल गंवाए मिसेज वर्मा के बच्चों को लेने चल दिया।

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