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रक्षा

लक्ष्मी बहन, मैं रक्षाबन्धन के त्यौहार पर तुम्हारे पास नहीं पहुचं सका जबकि हर वर्ष पहुंचता था। तुम्हें तकलीफ हुई होगी, मैं भलीभांति समझता हूं। हमारे रीति–रिवाज हमारी संस्कृति के अंग है और हम इन्हें बिना किसी संकोच के ईमानदारी के साथ निभाते आ रहे हैं।
बहन, मैंने पिछले वर्ष ही पढ़ाई छोड़ी है। मैं एक विद्यार्थी–भर ही रहा। में तुमसे राखी बंधवाता रहा और तुम्हारी रक्षा करने की जिम्मेवारी को दोहराता रहा। मां–बाप द्वारा दिए गए उपहार तुम तक पहुँचाता रहा। पढ़ाई खत्म होने के बाद मैंने नौकरी की तलाश में भटकना शुरू कर दिया। एक रोज़गार–प्राप्त अपने सहपाठी के साथ रह रहा हूं। माँ–बाप को झूठमूठ तसल्ली देता हूं कि नौकरी तो मिल गई है परन्तु तन्ख्वाह थोड़ी है और अपना गुजारा मुश्किल से कर पाता हूँ। अत: फिलहाल कुछ भेज नहीं पाऊँगा। असल में नौकरी मिलने की सम्भावना दूर–दूर तक नहीं है। घर की स्थिति के बारे में तुम जानती ही हो कि काम–धन्धे के लिए माँ–बाप के पास रुपए नहीं हैं हालाँकि मुझे व्यवसाय करने में कोई संकोच नहीं है।
मेरी प्यारी बहन, तुम्हें आरक्षण कोटे में नौकरी मिल गई थी। जीजा जी भी नौकरी में हैं। दोनों अच्छा कमा लेते हो। हां, जो मैं कहने जा रहा हूँ, यह कुछ अटपटा लग सकता है। हमारी परम्परा में जहां तक मैं समझता हूं, बहन की रक्षा की बात तक उठी होगी जब वह किसी न किसी रूप में आश्रित रही होगी पर, आज तो नहीं। आज के युग में रक्षा को केवल शारीरिक क्षमता से नहीं जोड़ा जाता। पैसे के बल पर सब कुछ सम्भव है, है न बहन! या तो सरकार पहले पुरुषों को रोजगार दे या फिर धर्म–गुरु रक्षा के दायित्व को, उठा सकने वाले पर डाल दें।
बहन, मुझे तुम्हारे पत्र का इन्तजार रहेगा। परन्तु मुझे जल्दी नहीं है। तुम जीजा जी से, अपने संस्थान के सहयोगियों से, किसी पत्र/पत्रिका के सम्पादक से, किसी राजनेता से, किसी धर्म–गुरु से सलाह मशविरा करकेबताना–क्या यह सम्भव होगा?....तुम्हारा भाई–निर्विभवत हो गए।

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