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साँझा दर्द

आसमान में बादल छाए थे । ठंडी हवा के झोंके अन्दर तक कँपा रहे थे । ऐसे मौसम में वह पिछले दो दिन से पूरी कॉलोनी के कई चक्कर लगा चुका था । लेकिन किसी भी घर से उसे चारपाई ठीक करने का बुलावा नही आया । एक दो घरों में तो उसने साहस करके दरवाज़ा खटखटा कर भी पूछ लिया था । लेकिन हर बार उतर मिलता, ‘‘ नहीं भैया कोई काम नही है चारपाई ही नहीं है तो ठीक क्या करवाएँगें । ’’
समय के साथ साथ चारपाइयाँ रखने का रिवाज ही समाप्त हो गया है । पॉश कॉलोनियों में तो लोगों ने रखना ही छोड़ दिया है । मध्यम वर्ग के लोग एकाध चारपाई रख लेते हैं । कभी- कभार उसे काम मिल जाता है । फिर वह अकेला नहीं है कई और लोग भी इस काम में लगे हैं । काम न मिलने का अभिप्राय हुआ भूखे पेट सोना । बँधी बँधाई आमदनी तो है नहीं, जो काम न मिलने पर उसका गुज़ारा हो जाए । पहले जवान था, काम खूब मिल जाता था । फिर सूत की चारपाइयों का रिवाज खतम हो गया । स्टील की नाइलॉन की निवार की चारपाइयों का चलन शुरू हो गया । काम कम होता गया । बाद मे उसने नाइलॉन की निवार का काम सीख लिया । बरसों बीत गए हैं । बूढ़ी हड्डियों में उतना दम भी नहीं । टूटी साइकिल पर वह बार बार उन्हीं गलियों में चक्कर लगाता रहता है । कभी काम मिल जाता है, कभी नहीं ।

वह गंदे नाले के पार की बस्ती में आ गया । आवाज़ लगा ही रहा था कि उसे एक झोपड़ी के बाहर ही ज।ग लगी स्टील की चारपाई दिख गई । उसकी बाछें खिल गईं। जिसकी चारपाई हैं शायद वह ठीक करवा ही ले । यही सोच कर वह वहाँ पहुँच गया । झोपड़ी में झाँककर देखा । कोई सो रहा था उसने आवाज लगाई, ‘‘ क्यों भाई चारपाई ठीक करवाओगे । ’’ आवाज सुनकर वह व्यक्ति फटा कम्बल हटा कर हड़बड़ा कर उठ बैठा । बोला, ‘‘ ठीक तो करवानी है, कितने पैसे लोगे ?
’’ उसने चारपाई देखकर बताया, ‘‘ चालीस रुपए लगेंगे।’’
व्यक्ति का चेहरा उतर गया । ‘‘ नहीं भाई, इतने पैसे नहीं है, रहने दो।’’
“कुछ कम कर दूँगा, ठीक तो करवा लो ” वह बोला ।
“ पैसे होते तो नई चारपाई ही ले लेता । सर्दी में जमीन पर सोने से ठंड लगती है । मजदूरी करने गया था वहीं यह चारपाई देखकर मालिक से माँग ली थी । कई दिन हो गए हैं । इतने पैसे ही नहीं है कि ठीक करवा लूँ । सीलन भरी ज़मीन पर सोने से सर्दी हड्डियों तक घुस जाती है । अभी रहने दो भैया , फिर ठीक करवा लूँगा’’- कह कर वह कम्बल मुँह पर डाल कर लेट गया ।
वह वहीं बैठा रहा । थोड़ी देर मे उस व्यक्ति को जोर की खाँसी उठी । वह उठ कर बैठ गया । देखा -वह वहीं बैठा हैं । “भाई, क्यों बैठे हो । मैं तो चारपाई ठीक न करवा पाऊँगा। अब तो सर्दी ऐसे ही बीत जाएगी । कौन- सी नई बात है । जिंदगी ऐसे ही निकल गई है , बाकी की बीत जाएगी। ’’ - वह खाँसता हुआ फिर वैसे ही लेट गया ।
उसने चारपाई खोली । कपड़े से साफ की । जहाँ -जहाँ से निवार टूटी थी ठीक की । जहाँ नई की ज़रूरत थी, वह भी लगा दी ।
चारपाई ठीक करके उसने अन्दर रख दी थी । भूख के मारे उसके पेट में कुल बुलाहट हो रही थी । पर चेहरे पर गहरा संतोष था ।
वह ‘‘ चारपाई ठीक करवा लो” की आवाज़ लगाता हुआ आगे बढ़ गया ।

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