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लघुकथाएँ - देश - प्रेम कुमार
माँ

माँ को अलग कर देने के सम्बंध में मानसी अभिजीत से रोज ही कुछ न कुछ कहती रहती। वो भला आज कैसे चुप रहती? आज तो उसने अभिजीत से साफ–साफ कह दिया, ‘‘देखो,अभि अगर तुम इसी तरह कान मूदे बैठे रहे तो मैं यह घर छोड़कर चली जाऊँगी । फिर तुम रहना अपनी माँ के साथ मजे से।’’
अभिजीत ने हमेशा की तरह मानसी को एक कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया और आफिस जाने को तैयार होने लगा।
शाम को अभिजीत आफिस से लौटा तो मानसी घर पर नहीं मिली। बच्चों ने बताया मम्मी नानी के घर गई है। मानसी का मायका नजदीक ही दूसरे शहर में था। पर अभिजीत को चिन्ता होने लगी। मानसी अचानक मायके क्यों चली गई? उसने उसे आफिस में फोन तक नहीं किया। जरूर कोई बात है। अभिजीत मायके फोन करने के इरादे से टेबल पर रखे फोन की तरफ लपका।
फोन के पास पहुँचकर अभिजीत मायके का आधा नम्बर डायल भी कर चुका था कि छोटे बच्चे सोनू की आवाज उसके कानों में पड़ी, ‘‘मम्मी आ गई...मम्मी आ गई...।’’
अभिजीत की उंगलियाँ रुक गईं। उसने रिसीवर कान से लगाए हुए ही पीछे देखा। सचमुच ही मानसी आ पहुँची थी। अभिजीत ने रिसीवर रखने के साथ ही मानसी से पूछा, ‘‘क्या बात है? तुम अचानक मायके क्यों चली गई। एक फोन तक नहीं किया...’’
‘‘भैया–भाभी की करतूत सुनकर मुझे उनके पास पहुँचने के सिवा कुछ नहीं सूझा, अभि...’’ मानसी ने अन्दर उबलते गुस्से को पीते हुए बताया।
‘‘क्या किया तुम्हारे भैया और भाभी ने....?’’ अभिजीत ने आश्चर्य से पूछा।
...किया क्या? माँ को अपने से अलग कर दिया था। बेचारी दो दिन से अलग रह रही थी, मानसी बताने लग गई, ‘‘वो तो अच्छा हुआ बगल वाले काका ने मुझे फोन कर दिया वरना पता नहीं कब तक अकेली सड़ती रहती....अजी मान लो माँ ने गुस्से से भाभी को कुछ कह दिया ही दिया तो भाभी छोटी तो नहीं हो गई न।’’
‘‘बात सही है मानसी।’’ अभिजीत अब नरम हो गया, ‘‘फिर भी तुम्हें इस मामले में सुलह सपट कराने की जरूरत नहीं थी। तुम्हारे भाई साहब खुद समझदार हैं....’’
‘‘तो क्या मैं यह जानकर चुप रह जाती कि बहू और बेटे होते हुए भी माँ अकेली नि:संतान की तरह रह रही है?’’ मानसी लगभग चीख पड़ी।
‘‘हाँ।’’ अभिजीत भोला बनते हुए बोला।
‘‘अभि,मेरी माँ की जगह किसी और के बारे में ऐसा सुना होता तो नि:संदेह ही बेहिचक चुप रह जाती। पर...अपनी माँ के बारे में ऐसा जानकर....चुप बैठूँ ऐसा हो नही हो सकता?’’ मानसी ने दृढ़ता से कहा।
तब अभिजीत ने मानसी से स्वाभाविक स्वर में कहा, ‘‘मानसी तुम भी मेरी माँ को अलग कर देने के लिए मेरी जान खाए जा रही हो, कहती हो माँ को अलग नहीं करोगे तो ऐसा कर दूँगी, वैसा कर दूँगी....घर छोड़कर चली जाऊँगी....और पता नहीं क्या–क्या? अब तुम ही बताओ मैं अपनी माँ को अपने से अलग करके चैन से रह पाऊँगा, सो पाऊँगा?’’
अचानक मानसी के चहरे पर बिखरी हुई दृढ़ता लुप्त हो गई और हल्की उदासी पसर गई। उसने सिर झुका लिया।

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