आए तो सुरजीत के पास गाँव के कई गणमान्य व्यक्ति थे, परंतु उसे उनकी राय बेतुकी लगी थी। स्कूल, धर्मशाला, डिस्पैंसरी व गुरुद्वारा ये सब तो पहले से ही गांव में थे, दो–दो। अगर नहीं था तो, दलित संतू के शहीद बेटे बलवीर का स्मारक।
इसलिए ही सुरजीत को अपने बाड़े में पशुओं को चारा डाल रहे संतू को देखकर उसके बेटे बीरे की याद ताजा हो गई थी। बीरा, जो कभी उसका दोस्त था। गाँव के स्कूल में वे दसवीं कक्षा तक साथ पढ़े थे। फिर समय के चक्कर ने उसे तो सात समंदर पार पहुँचा दिया, और बीरा फ़ौज में भरती हो गया। दो साल बाद ही वह कारगिल की लड़ाई में शहीद हो गया।
संतू में सुरजीत को अपना अक्स भी दिखाई दे रहा था। अंतर केवल इतना था कि वह किसी गौरे के खेत में....और संतू उनके यहाँ...।
दो–तीन घंटों की कशमकश के पश्चात सुरजीत ने बलबीर का स्मारक बनवाने का निर्णय कर लिया था। लेकिन अपने इस निर्णय के कारण उसे अपने घर में विरोध का सामना करना पड़ा था।
‘‘देख सुरजीत,मैं कहता हूं कि एक बार फिर सोच ले...यह छोटी जात पहले ही नहीं मान।’’ बड़े भाई प्रीतम सिंह ने कहा था।
‘‘जीत, यह क्या गजब ढा रहा है। देख न ... पहले गाँव में तेरे बाप की बातें होती थीं...अब जब से यह संतू का लड़का मरा है....लोग तेरे बाप के अंतिम संस्कार को भूल गए...देख न...’’ माँ ने भी अपने भीतर की बात बाहर निकालते हुए कहा।
‘‘ओ माँ! बापू की बात और थी।’’ माँ की बात सुनकर सुरजीत झुँझला गया था।
‘‘क्यों, बापू की बात और कैसे हुई? तुझे नहीं याद, बापू के होते सारा गाँव उनका पानी भरता था।’’ बड़ा भाई प्रीतम मूँछों पर हाथ फेरते हुए बोला था।
‘‘बड़े भाई! तुम समझते क्यों नहीं।....बापू की मौत नशे के कारण हुई थी और बीरा देश के लिए मरा है। तुम ये भेदभाव यहाँ रखते हो...और वहाँ वे साले अंगरेज हम से ऐसी ही कुत्ते खानी करते है!’’ सुरजीत सच कहने से रह नहीं पाया। उसकी बात सुन प्रीतम व उसकी माँ की आँखें फैली की फैली रह गई।