फूस का कच्चा धर था, एक। फूस में चिडि़या दम्पति ने अपना घोंसला बना लिया था। एक दिन घर का मालिक आईना खरीद लाया। उसने आईने को कच्ची दीवार में टाँग दिया था, कील ठोक कर।
एकांत पाकर चिड़ा आईने पर आ बैठा था। वह अपनी चोंच खरखराने के लिए उस पर झुका। उसे आईने में बलिष्ठ का एक चिड़ा दिखाई दिया। उतना ही तगड़ा–ताजा, जितना वह है।
एकाएक एक शंका से चिड़े का सर्वांग सुलग उठा था। ओह! यह उसकी संगिनी की करतूत है। मेरी अनुपस्थिति में यह मेरा विकल्प है। वह जितनी भोली भली है, उतनी ही बेवफा है। मेरे पत्नीव्रत होने का यह सिला! कपटाचार! बेहद क्रोध से चिड़े के नथूने काँप उठे थे। अपने शत्रु को धराशायी करने के लिए चिड़े के अंतस् से क्रोध की लपटें निकलीं।
उसका घर! गैर की मौजूदगी! गुस्सा भरे चिड़े ने उसे चोंच मारी। परछाई ने भी पलटवार किया। वह चोंच–चोंच चोट मारता खौलता जा रहा था। यह चिड़ा भी उतना ही उत्तेजित, क्रोधित और आक्रोशित है, जितना वह खुद है।
उसकी चोंच का जवाब चोंच से और पंजों का जवाब पंजों से बराबर मिलता रहा। वार–प्रतिवार। संघर्षरत चिड़े में थकान भरती गई थी, तथापि उसमें सोतिया डाह का लावा -सा धधक रहा था।
अनवरत प्रहारों में उसे चिड़े की मुखसन्धि पर लहू का एक कतरा दिखाई पड़ा। विजयश्री सन्निकट मान उसने और हिम्मत फूँकी।....वह जितना लहूलुहान था, उतनी ही लहूलुहान थी, उसकी परछाई।
चिड़ा पस्त होकर आईने से रिपसता रिपसता नीचे आ गिरा था।
दम तोड़ता चिड़ा खुश था, उसने ‘‘गैर’’ को परास्त कर दिया है।