शहर के बीचों–बीच स्थित उस ढाबे में नाश्ता करने वालों की काफी भीड़ थी। कुछ लोग नाश्ता कर रहे थे और कुछ प्रतीक्षा में थे।
तभी एक मरियल सा आदमी दौड़ता हुआ अन्दर घुस आया और ढाबे की मेज से टकराकर नीचे गिर पड़ा। उसके पीछे–पीछे दौड़ते हुए दो तगड़े से नवयुवक भी वहाँ पहुँच गए। उन दोनों ने आव देखा न ताव उस मरियल से व्यक्ति पर टूट पड़े। यह नीचे पड़ा चिल्लाता रहा।
भीड़ उन्हें घेर कर ऐसे एकत्र हो गई जैसे वे मदारी के जमूरे हों। किसी को भी हिम्मत नहीं हुई उन्हें छुड़ाने की।
तभी एक अधेड़ से व्यक्ति कर स्वर ग़ूँजा, ‘‘अब हाथ भी उठाया तो हाथ...।’’
पता नहीं उस आवाज में क्या जादू था। दोनों लड़कों के हाथ रुक गए और उनमें से एक बोल पड़ा, ‘‘अंकल, गल्ती इसकी है इसने....।’’
‘‘मुझे गल्ती से कुछ लेना देना नहीं, तुमने दादागिरी क्यों दिखाई? यदि मैं नहीं रोकता तुम तो इसे मार ही डालते।’’
ऐसा सुनकर दोनों लड़के सहम -से गए।
वाताववरण ऐसा शान्त हो गया जिसमें सुई गिरने की आवाज भी स्पष्ट सुनाई दे सकती थी।
भीड़ की ओर देखकर उसने फिर कहा, ‘‘अस्सी कोई खुसरे नी हां, जो तमाशा देखदे रहयांगे।’’
भीड़ में खड़े हर आदमी की आँखें ।ज़मीन में पता नहीं क्या खोजने लगीं।