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लघुकथाएँ - देश -चित्रेश
डुबकियाँ

सहसा उसके झुर्रियों भरे चेहरे पर हल्की–सी चमक आ गयी। उसने सामने की बर्थ पर बैठे यात्री की तरफ तर्जनी दिखायी और आंखों में झाँकते हुए कहा, ‘‘महाशय, अगर मैं भूल नहीं कर रहा तो संभवत: आप राधाकिशन जी हैं ना!’’
राधाकिशन नाम का वह बूढ़ा शुरू से ही अपनी याद्दाश्त पर जोर देने में लगा था कि सामने वाला कब मेरे संम्पर्क में आया था? अब अचानक स्मृतियों के कपाट खुल गये। तपाक से बोला, ‘‘और आप मूलचंद...’’
दोनों ने गर्मजोशी से हाथ मिलाए। अभी कुछेक मिनट पहले दोनों पिछले स्टेशन से इस कम्पार्टमेंट में सवार हुए थे। अब ट्रेन गति पकड़ चुकी थी और वे आत्मीयता से वार्तालाप में संलग्न थे। राधाकिशन कह रहा था, ‘‘अजीब संयोग है, कॉलेज छोड़ने के बाद आज करीब पचास साल बाद मुलाकात...’’
‘‘हाँ भाई, मैंने बिजनेस में हाथ डाला और पूरी उम्र भाग–दौड़ में बाहर ही बाहर कट गयी। हालांकि बीच में कई बार अपने कस्बे में जाना हुआ, पर तब भी आपसे मिलना न हो पाया।’’ मूलचंद ने जवाब दिया।
‘‘मैं भी कहाँ कस्बे में रहा? पढ़ाई छोड़ने के बाद पूरी तरह एक धार्मिक संस्था का होकर रह गया। समाज सेवा और धर्म प्रचार से समय निकाल, मुश्किल से चार–छह मर्तबा ही घर जा पाया– वह अल्प समय के लिए।’’ राधाकिशन ने स्पष्ट किया।
ट्रेन चलती रही, बातचीत का सिलसिला भी। तभी राधाकिशन ने एक अजीब सवाल किया, ‘‘भाई, एक बात पूछूँ? सच–सच बताएँगे?’’
‘‘हाँ–हाँ, क्यों नहीं?’’
‘‘अब इस जीवन संध्या में, क्या आप अपने विगत से पूरी तरह संतुष्ट हैं?’’
मूलचंद के चेहरे पर गम्भीरता उतर आई। मन की गहराइयों में गोता लगाते हुए बोला, ‘‘इधर कुछ समय से मुझे बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगा है कि भौतिकता की अंधी दौड़ में मैं धर्म से एकदम नाता तोड़े रहा। इसके अलावा कोई असंतोष नहीं हैं। वैसे आपके सामने तो ऐसी कोई समस्या होगी नहीं?’’
‘‘इसी बात का तो दुख है भाई।’’ राधाकिशन ने ठंडी सांस खींची, ‘‘मुझे लगता है कि भौतिक सुखों की उपेक्षा कर मैंने जीवन बेकार गवाँ दिया।’’
ट्रेन चलती रही। लेकिन बातचीत बंद थी। क्योंकि दोनों बूढ़े अपने–अपने? अतीत में डूब–उतरा रहे थे।

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