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लघुकथाएँ - देश -रमेश राणा
गलती

बात काफी बढ़ गयी थी और मैं चाहता नहीं था कि यह किस्सा मेरे घर तक भी पहुँचे। मैं किसी तरह से इस बात को यहीं रोक देना चाहता था, पर मोहल्ला था कि इसे फैला देने पर तुला था। मुझे तो मेरा कसूर भी लोगों ने ही बताया था। हालाँकि मैं अब भी उसे अपनी गलती नहीं मान पाया था, पर डर था कि मेरे घर वाले भी इसे मेरी गलती ही न मान लें । साथ के लड़के मुझे आशिक कह कर बुलाने लगे थे, लड़कियाँ मुझे देखकर मुस्कराने लगी थीं। अपने आप को ऊँचा और समझदार समझने वालों ने कहा, ‘इसे और कोई कहाँ मिलेगी?’ आखिर पिता जी ने भी पूछ ही लिया कि माजरा क्या है। मैंने डरते हुए कहा, कोई भी बात नहीं है। पिछले इतवार जब बारिश के कारण सड़कों पर पानी भरा था तो एक अंधी लड़की को हाथ पकड़ कर बस स्टैंड से उसके घर तक छोड़ आया था।’
‘‘जो हुआ सो हुआ, आइंदा ऐसी गलती मत करना।’’ पिता जी ने डाँटने हुए कहा।
‘‘गलती क्या...’’ मैं कुछ पूछना चाहता था,पर पिता जी गुस्से में कमरे से बाहर जा चुके थे।

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