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चीरहरण
पार्टी लॉन मेहमानों से खचाखच भरा था। इक्का–दुक्का लोग वापस जा रहे थे तो नए लोग भी अंदर आ रहे थे। गुप्ता दंपती आने वाले मेहमानों का स्वागत करने तथा जाने वालों को विदाई देने के लिए समारोह स्थल के मुख्य द्वार पर डटे हुए थे। जैसे ही कोई मेहमान शगुन का लिफाफा बढ़ाता मिस्टर गुप्ता मिसेज़ गुप्ता की तरफ इशारा कर देते। मिसेज़ गुप्ता शगुन के इन लिफाफों को बड़ी एहतियात से एक बैग में सहेज कर रखती जा रही थी। जब बैग भर गया तो उसने शेष लिफाफों को अपने बाएँ हाथ में पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद जाने वाले मेहमानों की संख्या में बढ़ोतरी होने लगी तो मिसेज़ गुप्ता की व्यस्तता भी बढ़ गई। कोई आठ–दस मेहमान उनको घेरे खड़े थे तभी सुनंदा वहाँ पहुँची। वह थोड़ा हटकर इंतज़ार करने लगी ताकि मेहमान कम हों तो वह भी गुप्ता दंपती को मुबारकबाद दे और शगुन का लिफाफा भेंट करे लेकिन तभी उसे मिसेज़ गुप्ता की आवाज़ सुनाई दी, “सुनंदा भई खाना–वाना तो ठीक से लिया न?”
‘‘हाँ, बहुत अच्छी तरह’’ यह कहते हुए सुनंदा मिसेज़ गुप्ता के निकट आई और शगुन का लिफाफा मिसेज़ गुप्ता की ओर बढ़ाया।
मेहमान मिसेज़ गुप्ता की सुनंदा के प्रति इतनी आत्मीयता देखकर ईर्ष्यालु हो उठे। तभी मिसेज़ गुप्ता का कोमल स्वर सुनाई पड़ा,‘‘देख सुनंदा अपने खास रिश्तेदारों और दोस्तों को छोड़कर किसी से भी मैंने सौ रुपये से ज्यादा नहीं लिये हैं। तुमसे भी ज्यादा बिल्कुल नहीं लूँगी’’ और सभी लोगों की उपस्थिति में उसका लिफाफा खोलने का उपक्रम करने लगी। सुनंदा ने हाथ बढ़ाकर लिफाफा खोलने से मना करने का संकेत करते हुए कहा कि ज्यादा नहीं बस प्रतीक मात्र हैं ;लेकिन मिसेज़ गुप्ता ने सबके सामने ही फुर्ती से लिफाफा फाड़ कर उसमें रखे पचास रुपये के नोट को बाहर निकाल लिया। नोट को ध्यान से देखते हुए और परोक्ष रूप से आसपास के लोगों को भी दिखाते हुए मिसेज़ गुप्ता ने सबको सुनाते हुए कहा, “हाँ पचास चलेंगे लेकिन मैं सौ से ज्यादा बिल्कुल नहीं लेती।’’ सुनंदा जल्दी से जल्दी बाहर निकल जाना चाहती थी; लेकिन उसके क़दम उसका साथ नहीं दे रहे थे। उसका सारा ध्यान महाभारत के उस दृश्य पर केंद्रित हो गया जहाँ भरी सभा में कौरवों द्वारा द्रौपदी को निर्वसना करने का प्रयास किया जा रहा था और वह अपनी विवशता पर आँसू बहाने के सिवाय और कुछ नहीं कर पा रही थी।
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