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दृष्टि
‘‘रामदीन, रामदीन!’’ पोर्टिको से लॉन तक गूँजती एक बुलन्द आवाज। रामदीन माली खुरपी, डलिया छोड़कर तेजी से लपकता हुआ सेठ बी प्रसाद के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, ‘‘जी! मालिक!’’ सेठ जी रामदीन से मुखातिब हुए, ‘‘कितना सुन्दर है यह गमला, यह पौधा और उसमें खिला गुलाब।’’
किसने यह फूल लगाया।’’
‘‘जी सरकार मैंने’’ रामदीन बोला।
‘‘यह लो पचास रुपये।’’ सेठ जी ने रामदीन की हथेली में रखकर, गर्म करते हुए कहा। रामदीन सेठजी की इस अनुकम्पा से गद्गद हो गया।। सेठजी कार में बैठकर बाहर चले गये और रामदीन बगीचे में।
अभी वह अगली क्यारी आधी ही खोद पाया था कि फिर सेठ रतन प्रसाद ने उसे जोर से पुकारा। वह फिर दौड़ा। सेठजी को थोड़ा असंयत पाया । वे बोले, ‘‘कुछ पौधों में फूल नहीं खिल रहे हैं, जरा ध्यान से काम किया करो’’ इतना कहकर वे बिना कुछ सुने- समझे कार में बैठकर चल दिये।
‘‘रामदीन...रामदीन...राम...!’’ इस बार तो जैसे किसी अपराधी को किसी हाकिम ने हाँक लगाई हो। सारा काम-धाम छोड़कर, रामदीन गिरता–पड़ता पोर्टिको में पहुँचा। वहां बड़े सेठजी यानी जगदम्बा प्रसाद तने खड़े थे। रामदीन को देखते ही उनकी त्योरियाँ चढ़ गयीं। बरस पड़े उस पर, ‘‘ये सब क्या लगा रहा, गमलों के बीच में देखो वह चिड़िया की बीट, बिल्ली का..., सब कैसे पड़ा है। तुम बहुत लापरवाह हो गये। इस महीने तुम्हारी पगार से पचास रुपये कटने ही चाहिए।’’
रामदीन समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उसने किया क्या है। अच्छा या बुरा। अभी पचास का नोट बतौर इनाम पाने की खुशी मिली भी न थी कि पगार कटने का एलान हो गया। रामदीन पुराना माली है। थोड़ा मुस्कराता-सा, वह फिर अपने काम में लग गया, गुनगुनाते हुए, ‘‘जाकी रही भावना जैसी...’’
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