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बेजान चिट्ठी
लिखित की चिट्ठी आरम्भ से अंत तक कुशल समाचार से भरी थी, फिर भी उसका बूढ़ा बाप पढ़कर उदास हो गया। देर तक चिट्ठी का हाथ में उठाकर अन्यमनस्क खड़ा रहा।
‘‘कुछ सोच रहे हो ?’’ बुढि़या ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘तो ऐसे क्यों खड़े हो? आज काम पर नहीं जाना है क्या?’’
‘‘जाना है।’’
बूढ़ा खड़ा हुआ। चिट्ठी को सन्दूक में रखने के लिए अन्दर गया। सन्दूक खोलने से पहले पुन: एक बार चिट्ठी को ध्यान से पढ़ गया।
बिना कलम उठाये सि‍र्फ़ पाँच पंक्तियों ही घसीट दी थीं बेटे ने। पहली दो पंक्तियों में परिवार के सदस्यों की नामावली थी और शेष तीन में कुशल–मंगल।
बूढ़े की दृष्टि उस नामावली पर घूमने लगी।
‘‘आज तुम्हें हो क्या गया है?” बुढि़या ने फिर टोका, “क्या चिट्ठी में कोई ऐसी–वैसी खबर लिखी है, जो बार–बार उसे घूर रहे हो?’’
‘‘नहीं, लिखा तो कुशल–मंगल ही है।’’
‘‘तो, फिर क्यों पढ़ने लगे?’’
‘‘लगता है, बेटा शहर जाकर बहुत से कामों में डूब गया है । कभी चैन से बैठकर चिट्ठी लिखता है, क्या यह हमारे लिए कम है?’’
‘‘उसे तो साँस लेने की फुर्सत भी नहीं मिलती। फिर भी, सबको याद करके चिट्ठी लिखता है, क्या यह हमारे लिए कम है?’’
बूढे़ की बेचैनी में कोई फर्क न पड़ा। वह बार–बार नामावली को टटोलता रहा। उस नामावली में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ आठ–दस मास पूर्व स्वर्गवासी हुए अपने भाई का नाम भी लिखित ने लिख दिया था!
मृत पुत्र की याद आते ही बूढे़ की आँखें छलछला उठी, ‘मैं बेटे का नाम पढ़कर व्याकुल हो गया और उसे लिखने में कुछ न हुआ?’ वह मनोमन बोल उठा। उसे मालूम हो गया कि यांत्रिक ढंग से लिखी इस चिट्ठी में बेटे का दिल नहीं था। आँसू पोंछकर उसने चिट्ठी को सन्दूक में रख दिया।
पुत्र भले ही चूक गया, पर पिता ने उस चिट्ठी में जान डाल ही दी।
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