मगर की तरह मुँह फाड़े उन पुराने जूतों को सड़क के किनारे बैठे उस मोची से सिलवाने के लिए एक उस दिन मैं मजबूर हो गया। खड़खडि़या साइकिल को सड़क किनारे खड़ा कर मैंने जूते मोची के सुपुर्द कर दिए तथा एक ओर खड़ा हो गया।
वह सड़क कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय को जाती थी। तेरह से सोलह वर्ष की लड़कियाँ के झुण्ड एक के बाद एक वहां से गुजर रहे थे। फैशन परेड की तरह गुजरते समूहों में से लड़कियों के कुछ वाक्य बीच–बीच में मेरे कानों तक पहुँच रहे थे...
‘‘महाचोर देखी?’’
‘‘हाँ, पर अब राजेश खन्ना में वह बात नहीं।’’
कुछ क्षणों का मौन । फिर खनखनाती आवाजें......
‘‘कागज की नाव देखी?’’
‘‘डैडी–मम्मी ले ही नहीं गये। कहते है ए सर्टिफिकेट वाली है।’’
‘‘किसी दिन स्कूल से चलें?’’
‘‘अरे हट? इमरजेंसी में सिनेमा वाले बहुत स्ट्रिक्ट हैं। कम उम्र वालों को घुसने नहीं देते। पहले चल जाता था।’’
‘‘सुना है चिन्तू और नीतू का आजकल कुछ चल रहा है?’’
‘‘अरे, ये तो जोड़ी बनाने के फिल्मी नुस्खे हैं।’’
‘‘और वह नया शिन्दे सर कितना इतराता है।’’
‘‘छींट का नया बुशर्ट पहन स्वयं को ‘छोटी–सी’ बात का हीरो समझता है।’’
‘‘मुझे तो बहुत प्यारा लगता है, बिल्कुल अमोल पालेकर जैसा।’’
मैं लड़कियों के इस अन्तिम समूह को देखता रह जाता हूं। मोची ने जूते सिलकर मेरे सामने रख दिए हैं। फिर भी मेरी तन्द्रा नहीं टूटती। आखिर वह बोल पड़ता है, ‘‘का छोकरियन में रम गये बाबू?’’
उसे क्या जवाब देता ! क्या यह कहता कि लड़कियों के उस अन्तिम समूह का वह अन्तिम वाक्य मेरी बेटी का था।