साम्प्रदायिक दंगों की आग में पूरा शहर जल रहा था। दुकानें जल रही थी। बस्तियाँ जल रही थीं। लोग मारे जा रहे थे। आदमी और आदमी के बीच नफरत, शंका और भय की दीवारें बड़ी तेजी से खड़ी हो रही थीं।
कई महीनों तक स्कूल बंद रहे, जब दंगे समाप्त हुए तो अध्यापकगण स्कूल आने–जाने लगे। कई दिनों तक तो वे महज स्कूल जाते रहे, मस्टर पर सही करते रहे। पढ़ाई–लिखाई हो नहीं पाती थी। क्योंकि विद्यार्थी अभी नहीं आते थे। धीरे–धीरे वे भी आने लगे। पढ़ाई–लिखाई की गति सामान्य होने लगी।
एक दिन मैंने कक्षा में पर्यायवाची शब्द पूछते शुरू किये। विद्याथियों ने उत्साहपूर्वक उत्तर दिये। फिर विरोधी शब्द पूछने शुरू किये। विद्यार्थियों ने उसके भी सही–सही उत्तर दिये। फिर विरोधी शब्द पूछने शुरू किये। विद्यार्थियों ने उसके भी सही–सही उत्तर दिये। इस पर मैंने कहा, ‘‘ अब तुम लोग पूछो।’’ एक विद्यार्थी ने पूछा, ‘‘पूजा का विरोधी क्या होगा।’’ मैं सकपका गया। यक–ब–यक मुझे कुछ नहीं सूझा। मैने पलटकर कहा, ‘‘चलो, तुम लोगों में से ही कोई बताये कि पूजा का विरोधी शब्द क्या होगा ?’’ एक को छोड़कर और किसी विद्यार्थी ने हाथ नहीं उठाया था, मैंने उससे पूछा, ‘‘चलो तुम्हीं बताओ।’’ विद्यार्थी ने खडे़ होकर जवाब दिया, ‘‘सर! पूजा का विरोधी शब्द है नमाज,’’ मैंने देखा उसके चेहरे पर बेइन्तहाई मासूमियत बरस रही थी।
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