अपनी लकड़ी टेकती एक बूढ़ी आई। पेंशन रुक जाने के कारण वह मरी- सी हो रही थी। प्राय: रोज आती है, वह। कमरे में आते ही उसने अपनी लकड़ी कमर के साथ खड़ी कर ली थी। बाबूजी की कुर्सी की सीध में खड़ी होकर उसने झुरियों भरे अपने दोनों हाथ जोड़ दिए–‘‘बाबूजी नमस्ते ।’’ मूली हूँ,डालचंद की बेवा। पेंशन रुक गई है, मेरी ।दया करो। ’’
प्रत्युत्तर नहीं मिलने पर बूढ़ी खिन्न और निराश हो गई थी। बाबूजी तो आज भी सीट पर नहीं है। कागज कौन देखें। उसने गीली हो आई आँखें पल्लू से पोंछी। कमर साथ लकड़ी को उसकी कोहनी लग गई। लकड़ी नीचे गिर पड़ी थी। लकड़ी के नीचे गिरते ही बूढ़ी साँस मारती जमीन पर बैठ गई थी।
चपरासी आया। बुढ़िया से मुखातिब हो, उसने अपना वही तकिया कलाम दोहराया–‘‘बाबूजी अभी–अभी बाहर गए हैं। उनका चश्मा कागज पर रखा है। आते ही हैं। माताराम, तुम एक काम करो, बाहर जा बैठो।’’
बूढ़ी ने नीचे पड़ी लकड़ी टटोली। वह टटपोले मारती बाहर आ बैठी थी,बुझे मन।
आधा- एक घण्टे बाद दो वृद्ध आए। सीक -सी उनकी देह थी। वह दम भर कर भी बमुश्किल कदम रखते थे। बाबूजी की टेबल पर चश्मे के नीचे कागज रखा देख, वह आश्वश्त हो गए थे। बाबूजी आस–पास हैं। आते ही होंगे।
हालाँकि वहाँ कुर्सियाँ खाली पड़ी थीं। उन्होंने अपनी गरज और गवई रिवाज जमीन पर बैठना ही मुनासिब समझा। वे दोनों हाथ जोड़कर, वहीं आस लगाकर बैठ गए थे।
चपरासी आया। उसने वहीं दोहराया–‘‘बाबूजी अभी–अभी बाहर गए है। कागज पर उनका चश्मा रखा है। बस आते ही हैं। ’’
सुबह से चार बजे तक बीसियों विकलांग, वयोवृद्ध,अशक्त कार्यालय में इकट्ठा हो गए थे। पाँच बजते उनमें से आधे से ज्यादा मन मारे घर लौट गए थे, कल आएँगे। जरूरतमन्द वहीं बैठे रहे, भूख रोज लगती है। बाबूजी से मिलकर अपना काम करा लें।
पाँच बजते ,बाबूजी हवा हुए आए। उन्होंने सरसरी नज़र कमरे का मुआयना किया और अधिकारी के कमरे में चले गए थे। थोड़ी देर बाद मुँह पर हाथ फेरते वे बाहर निकले। अपने कमरे में गए। चश्मा और कागज दराज में रखे। बाबूजी बाहर निकले, चपरासी ने कमरा बंद कर दिया था।
वहाँ बैठे असहाय लोगों ने छाती और माथा एक साथ पीटे, मगरूर आज भी उनका सपना रौंद गया।
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°