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लघुकथाएँ - देश - कमल चोपड़ा
दुख बराबर

ऊपरवाली सीढ़ी पर पंडिताइन बैठी थी और नीचे वाली पर जमादारनी।
ये सीढ़ियाँ सेठ रतनचंद अग्रवाल के घर के बाहर बनी हुई थी। गली से गुजर रही थी पंडिताइन । दो घड़ी साँस लेने के लिये सीढि़यों पर बैठ गई – बुढ़ापे ने जान ले लई है। दो कदम भी चलया नहीं जाए। साँस फूलने लगे हैं।
सहानुभूति जताई जमादारनी ने – टैम टैम की बात है पंडिताइन । कभी मैं भी ढाई छलांग में मुहल्ला नाप लूँ थी। अर आज थोड़ी दूर जाना पड़ जाए तो रास्ते में दस जगह बैठना पड़े है।
दोनों के पास रखीं फल और पूड़ी हलवे से भरी थैलियां पड़ी थीं। उन पर नजर पड़ते ही पंडिताइन ने कहा – आज तन्नै घणा ई माल मिलया दीखै?
– तीज त्योहार पर कभी कभार मिल जावै है! ना तै रोजना त सूखी रोटी चाबनी पड़े है। हम तो इनका गूँ–मूत साफ करते हैं और लोग ऐसे देवें हैं जैसे भीख देवें हैं।....
दुखती रग का दर्द पंडिताइन की आवाज में भी उतर आया – देवें ही क्या हैं? इनकी बिल्डिंगें तो हर साल ऊँची होती जावैं हैं और दान दक्षिणा घटाते जा रहे हैं। म्हारा हक ही न मारा गया? दान धर्म तो रहा ही नहीं! भगवान को आजकल कोई न पूछता। पंडितों की तो बात क्या करें? खुद ही भगवान हो रहे हैं। डर- भय किसका का ?
हमारी ही दुआओं से फल–फूल रहे हैं और हमारा ही हिस्सा देवे ना हैं। पंडिताइन की बात पर वह खीज गई। मन हुआ एकबारगी उसे खरी–खरी सुना दे। पर जाने क्यों लिहाज कर गई। फिर अपना दर्द बयान करने लगी। पूरा महीना हम इनका कूड़ा उठावैं और पैसे देते वक्त झिक–झिक करे है। कहवैं हैं कल ले लेना।
क्षण भर के लिये जमादारनी रुकी फिर बोली – दान बख्शीश से कदे किसी का पेट भरया है? भगवान किसी से न मँगवाये। बेटा बहू तो बिठा के खिलायेंगे नहीं। बेटा अच्छी नौकरी पर लगया हुआ है पर बहू....? ऐसी कुलच्छनी के कहवे है, म्हारा अपणा न पूरा होता तन्नै कित्तै खिलावैं? मेरे से कूड़ा–कचरा उठता नहीं। मुहल्ले वालों से बीस–बीस तीस–तीस कर के जो मिलता है कूड़ा उठाने वाला एक रेहड़ी वाला रखा हुआ है उसे दे देती हूँ। ऊपर से दान–बख्शीश जो मिल जाती है मुझे तो बस वाये पल्ले पड़े सै। बहू का बस चले तो मुझे तो घर में एक मिनट न टिकण दे....
उसकी आंखों में आँसू आ गये थे। पंडिताइन का स्वर भीग गया – मेरा भी यो ई हाल सै। मेरी बहू इतनी कुलच्छनी सै कि...? मेरा बेटा ऐबी है, जो कमावे है खा–पी जावे है। और बहू मेरे लिये एक रोटी भी न पो सकती? जिन्दगी भर मेहनतें कर–कर के मकान हमने बनाया। ईब बहू आ गई राज करने? कहते हैं मकान मेरे नाम कर दे....? ईब जीते जी कैसे कर दूँ?
जमादारिन की आखों से लगातार आँसू बह रहे थे। उसे चुप कराने के प्रयास में पंडिताइन खुद रोने लगी – मत रो बहन.....
बहन शब्द ने उन दोनों के बीच जात–पात ऊँच–नीच वगैरह की दूरियाँ क्षण भर में मिटा दी थी। जाने कब पंडिताइन नीचे वाली सीढ़ी पर आ बैठी थी और जमादारिन को सांत्वना देने लगी थी – कोय बात ना। जैसे भी हैं बेटा- बहू खुश रहें । के कर सके सब? ईब ना वो पहले वाली बात रयी ना वो दान देने वाले....? वो राम किशन वाली से न कहते थीं बहू के बेटा होगा तो तन्ने साड़ी दूँगी। जब हुआ तो पुरानी -धुरानी मत्थे मार दी.....
– मुझे तो दस रुपये देकर ही टरका दिया। जैसे भीख दे रही हो। हुँह......इन ते बढि़या तो सब्जी वाला चतरे है। गरीब है पर जो बन पड़ता है, है देता है। रास्ते में जहां भी मिले है कहे है – अम्मा, राम–राम....
– कहते हैं आदमी ज्यों ज्यों मोटा होता जावे है ;त्यों त्यों उसका दिल छोटा होता जावे है!!
क्षण भर के लिये दोनों के चेहरे की झुर्रियाँ पर एक मुस्कान ने खिला दीं। अगले ही क्षण पंडिताइन हिम्मत कर के उठी और जमादारिन को अपने सामान का ध्यान रखने की कह कर बचे–खुचे घरों से दान लेने चल दी।
किलसकर रह गई जमादारिन ..... हर जगह मुझसे पहले पहुँची होती है ये दान लेने। वैसे तो लोग इनके लिए दक्षिणा पहले ही से निकालकर रख लेते हैं हमें बाद में मिलती है। इन्हें जो मिलता है वो भीख होती है या हमें जो मिलता है वो भीख होती है। लेकिन आज उसे गुस्सा नहीं आ रहा था। वह एकदम शांत थी। आज उसे एक हमउम्र हमदर्द जो मिल गया था।
इधर–उधर से ला–लाकर पंडिताइन दान इकट्ठा कर रही थी। इतना उठा कर ले जाना उसके बस का नहीं था। रिक्शा करना पड़ा। उसके जाने के बाद जाने क्यों जमादारिन का मन ही नहीं हो रहा था लोगों के घरों से जाकर माँगे – मुझे ना चाहिये। वह चुपचाप उठी और घर की ओर चल दी।
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कमल चोपड़ा,
1600/114 ,, त्रिनगर,, दिल्ली-110035

 
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