खाना खाते ही मनभर खटिया पर पसर जाता। फिर उसे पता ही नहीं होता कि कब आँख लगी और कब रात बीती। लेकिन आज दिन भर पसीना–पसीना मेहनत करने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। दिन वाली बात किरच की भाँति उसके दिमाग में चुभ रही थी।
नगर की छाती पर बनी एक आलीशान बिल्डिंग को इंजीनियरों ने खतरनाक घोषित कर दिया था। अत: उसे तोड़ने के आदेश दे दिए गए थे। मनभर अपने साथियों के साथ दिन भर वही मज़दूरी पर जुटा रहा था।
‘साब! या बिल्डिंग मां ना तो कोई दरार दिखाई देई ली, ना ही सिकी होर दिवाल टूटी दिखी ली, ना कोई ओर नुकस ही दिखाई देवो लो। फेर या काई खतरनाक होई ली।?’
‘भई! जब बिल्डिंग पुरानी हो जाती है, तो उसके गिरने का डर हो जाता है। यदि कोई बिल्डिंग गिर जाए, तो जान–मान की कितनी हानि हो सकती है, पता है?’ उत्तर में एक इंजीनियर ने मनभर से पूछा था।
मनभर सोचता है......हम तो पिछले पैंतीस–चालीस सालों से उस बिल्डिंग से भी कई गुणा खतरनाक मकान में रह रहे हैं। हमारी जान–माल को कोई खतरा नहीं है क्या!
फिर उसे अपना विचार बेतुका–सा लगने लगता है। ‘हुंह!’ वह व्यंग्य से बुदबुदाता है, ‘म्हारे मकान मां काल ही कहाँ लो! छ: जान हैं लेकिन गरीब की जान की काईं कीमत होई ले!’