शाम हो चुकी थी। लगभग सभी घरों के दरवाजे बंद हो चुके थे। गलियों में इक्का–दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे। वे भी तेजी से अपने घरों की ओर जा रहे थे। वह गाँव भी उस क्षेत्र के अन्य गाँवों की तरह आतंकवाद की लहर की चपेट में आ चुका था।
पुलिस का एक गश्ती दल अपनी दैनिक गश्त पर गली में से निकल रहा था। दल के नायक ने देखा कि एक बुढि़या अपने घर की दहलीज पर बैठी हुई है.....भीतर बाहर सभी किवाड़ खुले पड़े हैं और वह अपनी आँखों से आकाश में न जाने किस चीज को एक टक देख रही है।
नायक को लगा कि बुढि़या अपने किसी बेटे या पोते के इन्तजार में बैठी है। उसने बुढि़या से पूछा.....‘माँ जी! अपने बेटे का इंतजार कर रही हो क्या?’
....‘नहीं।’ रूखा–सा उत्तर दिया बुढि़या ने।
.....‘तो फिर, अन्दर चली जाओ न माँ जी। वैसे कोई आपको तंग तो नहीं करता?’
......‘नहीं रे! मुझे क्या तंग करेगा कोई।’
.....‘क्यों. आपको आतंकवादियों का भी भय नहीं है क्या?’
.....‘नहीं रे! मरा क्या बिगाड़ लेंगे आतंकवादी।’
बुढि़या का उत्तर सुनकर एक सिपाही हँस पड़ा। उससे न रहा गया, बोला, ‘लगता है, माँ जी बहुत तगड़ी हैं। आतंकवादी तो इनके पास आते हुए भी काँपते होगें। न जाने माँ जी उनका क्या बिगाड़ डाले।’
‘हाँ रे, हाँ!......मैं बौत तगड़ी हूँ...बौत तगड़ी....सच कहती हूँ....मेरा क्या बिगाड़ लेंगे वो.....? उनकी गोलियाँ मेरी इन अभागी आँखों के सामने ही मेरे पति को.....दोनों बेटों और बहुओं को....दो पोते और पोतियों को भून चुकी हैं रे....बोल रे, बोल...तू ही बता.....अब क्या बिगाड़ लेंगे.....आतंकवादी......मेरा?’
बुढि़या की मर्मभेदी रुलाई के बीच–बीच से उभरे सर्प के फन जैसे प्रश्न का उत्तर, उस गश्ती दल के किसी भी सदस्य के पास न था।