‘‘10 दिसम्बर 1964’’
पुरानी डायरी के उस पन्ने पर नजर ठहर गईं। वह तीस पुरानी घटनाओं में खो जाता है।
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मेरे इकलौते साले विजय का विवाह हैं अपनी पत्नी, दो सालियों, उनके बच्चों व विजय के संग मैं कार पर निकला हूँ। शेष बारात बस से आएगी।
कार एकाएक खराब हो गई है। अपने प्रयासों को व्यर्थ हुआ देखकर ड्राइवर किसी मिस्त्री को लाने हेतु निकल पड़ा है। बहुत देर होती देखकर सब के चेहरे पर खीझ ओर चिन्ता के भाव उभरने लगे है। हाँ, इस बीच विचार आया कि नई गाड़ी कर लें किन्तु दो तीन जगह पूछने पर पाया कि यह संभव नहीं है। खैर, मिस्त्री को लेकर ड्राइर्वर आ गया है। सब एक राहत सी महसूस करते हैं।
अचानक मुझे एक केले वाला दिखाई पड़ा है। यह सोचकर कि 15–20 मिनट जब तक गाड़ी ठीक हो थोड़ा रिफ़्रेशमेंट ही सहीं फिर बच्चों को भूख लगी होगी व मशक्कत में जुटे मिस्त्री व ड्राइवर भी एक दो केले खालें तो अच्छा ही है। मैं केले वाले की तरफ बढ़ता हूँ। सूटेड–बूटेड दूल्हे राजा को मेरी यह हरकत गँवारू और बचकानी लगी है। इसीलिए शायद वह कुछ बुदबुदाया भी है।
इस सबकी चिन्ता न करते हुए विजय और फिर अन्यों को मैं केले पेश करता हूँ। सबने नकारात्मक सिर हिला दिया है। असमंजस की स्थिति में एक केला खाना आरंभ करते हुए मैंने आग्रह फिर दोहराया है। इस सहज आत्मीय आग्रह की प्रतिक्रिया में विजय ने लिफाफा ले लिया है दूसरे ही क्षण वह उसे पिछली सीट के नीचे फेंक चुका है। मैं कभी उसे और कभी केलों की ओर देखता हूँ। मेरी पत्नी सालियाँ,बच्चे सब खामोश नि:शब्द यह देख रहे हैं। ड्राइवर और मिस्त्री ने भी कनखियों से यह पूरा मंजर देखा है।
मौका साले की शादी का है और मैं बड़ा जीजा हूँ। रोष भरे मेरे शब्द कसमसाकर मुँह में ही रह जाते हैं। मन किन्तु भीतर से चिर सा गया है।
मुझे साले से इतना गिला नहीं है, सालियों से भी नहीं है, अबोध बालाकों से तो बिल्कुल नहीं है। पर सोचता हूँ कम से कम मेरी अर्धागिनी तो मेरा मान रख ही सकती थी। यदि वह आगे बढ़कर बस एक केला ले लेती, बोलती चाहे कुछ नहीं किन्तु खा ही लेती तो....तो....
टन–टन–टन–टन की ध्वनि से उसका ध्यान भंग होता है। रात्रि के ग्यारह बज रहे है। प्रौढ़ा हो चुकी उसकी पत्नी साथ की चारपाई पर निद्रामन है। उसकी रजाई एक तरफ लुढ़क गई है। अपनी बूढ़ी आँखों में सारी दुनिया का प्यार समेटकर वह उसे एकटक देखता है।
उसे रजाई ठीक से ओढ़ा देने की खातिर वह उठ गया है।