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सौंदर्यबोध
पावर नहीं थी। काम बंद था। कर्मचारी निष्क्रिय। जुण्डलियों में जुड़े। गप्पे कूटते। चुहुलखोरियों में तल्लीन। कुछ पत्र–पत्रिकाएँ पढ़ रहे थे। कुछ औरत के अंगों को लेकर दर्जी हो गए थे।
वह भी एक फिल्मी पत्रिका में सिर गड़ाए थ। बगल में बैठा अनपढ़ असढू लाल भी ललचाई भूखी आँखों से अर्धनग्न नायिकाओं को घूर रहा था। वह जैसे ही पन्ना पलटता नई तस्वीर देखते ही असाढू लाल की आँखों का स्वाद कुछ और चटखारेदार हो जाता।
मुस्की मारे कुछ देर तो वह चुपचाप देखता रहा। जब रहा न हुई तो पूछ बैठा,‘‘भइया कौन -सी पसंद है?’’
असाढ़ू लाल की आँखों का चटखारेदार स्वाद उसके पान की पीक में उतर आया। भीतर गुटकते हुए बोला,‘‘सबसे कटीली पतुरिया बा।’’
वह चुहुल के मूड में आ गया, ‘‘अच्छा भइया एक बात तो बताओ...... औरत की देह का कौन -सा अंग तुम्हें सबसे सुन्दर लगता है?’’
असाढ़ू लाल के बत्तीसीविहीन चेहरे पर बन्नेपन वाली अबीरी लज्जा फैल गई। वह कई पल तक मीठी साचे में डूबा रहा। फिर बोला, देही केर का बताई, कमीबेस देही तो सबहे की एककई जैसी होत बा। का रानी का कानी। हाँ, मुला खूबसूरती की पूछत हो तो मेहरिया केर सबसे खपसूरत होता है पिरेम। केतन भी खपसूरत कटीली छबीली मेहरिया रहे, ओह कर खूबसूरती धेले की नाहीं होत अगर वहमा पिरेम प्यार नहीं बा।’’
उसने फिल्मी पत्रिका बंद कर एक ओर फेंक दी।
 
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