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कम्बल
मंदिर की दीवार के बाहर, दीवार से सटकर वह लेटा करता था। ठंड और बारिश से बचने के लिए दो डंडों के सहारे उसने टाट की बोरियाँ बाँध रखी थीं। कड़ाके की सर्द रात में कल कोई दयालु उस पर एक कम्बल डाल गया था। आज उसी कम्बल को ओढ़े वह लघुशंका के लिए आधी रात में उठा तो कुछ दूर सोये बाबू को उसने कराहते पाया।
बाबू कुछ दिन पहले ही काम की तलाश में गाँव से आया था। बूढ़े बाबा से उसकी दोस्ती हो गई और यहीं मंदिर के बाहर उसने अपना डेरा लगा लिया था। जब वह काम की तलाश में जाता तो उसकी एकमात्र गुदड़ी की रखवाली बूढ़ा बाबा किया करता था।
बाबू काहे कराह रहा रे ? बाबू को कराहता सुन बाबा ने प्यार से उससे पूछा।
बूढ़े बाबा ने बाबू के सिर पर हाथ रखा और बोला तू तो तप रहा है रे। अब मैं का करूँ? कोई दवा- दारू तो मेरे पास है नहीं। फिर वह अपना कम्बल बाबू को उढ़ाकर आ गया।
सुबह बाबू देर से उठा था। कम्बल की गरमाई और बुखार के बदन से वह जल्दी नहीं उठ सका था।
बाबा को कम्बल लौटाता बाबू बोला, बाबा! आज तो कितनी धूप चढ़ आई। तुम तो मुँह अँधेरे ही उठ बैठते हो।
उसने बाबा को कई बार पुकारा, पर बाबा में कोई हलचल न हुई, तब उसने बाबा पर से चादर हटाई। बाबा की आँखें खुली थीं और बदन अकड़ा हुआ था।
दादा, बापू, अम्बा कई मौतें देख चुका बाबू फटी आँखों बाबा को देखता खड़ा रह गया। रात को उसे कम्बल ओढ़ाते समय बाबा ने कहा था, मेरा क्या बेटा चार दिन कम भी जिया तो क्या। वैसे ही मरे समान हूँ। तू तो अभी जवान है। बहुत दिन जियेगा, कमायेगा, घरवालों को पालेगा।
बाबू के हाथों पर कम्बल रखा था।
कम्बल पर बड़ी–बड़ी दो बूँदें उसकी आँखों से फिसलकर अटक गई थीं।
 
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