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सुकेश साहनी
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रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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मेरे अपने
अपना शहर व घर छोड़े लगभग बीस साल से ज़्यादा वक्त बीत चुका ।इस दौरान बिटिया सयानी हो गई ।वर ढूँढा और हाथ पीले करने का समय आ गया।विवाह के कार्ड छपे, सगे-सम्बन्धियों व मित्रों को भेजे ।शादी के शगुन शुरू हुए आँखें द्वार पर लगी रहीं।इस आस में में कि दूर –दराज़ के सगे –सम्बन्धी आएँगे। वे सगे सम्बन्धी, जिन्होंने उसे गोदी में खिलाया और जिन्हें बेटी ने तोतली ज़ुबान में पुकारा था ।पण्डित जी पूजा की थाली सजाते रहे । मैं द्वार पर टकटकी लगाए रहा ।मोबाइल पर सगे सम्बन्धियों के सन्देश आने लगे। सीधे विवाह वाले दिन ही पहुँच पाएँगे जल्दी न आने की मज़बूरियाँ बयान करते रहे ।
मैं उदास खड़ा था ।इतने में ढोलकवाला आ गया ।उसने ढोलक पर थाप दी ।सारे पडोसी भागे चले आए और पण्डित जी को कहने लगे –और कितनी देर है ? शुरू करो न शगुन !
पण्डित जी ने मेरी ओर देखा । मानो पूछ् रहे हों कि क्या अपने लोग आ गए?मेरी आँखे खुशी से नम हो गईं। परदेस में यही तो मेरे अपने हैं। मैंने पण्डित जी से कहा-शुरू करो शगुन , मेरे अपने सब आ गए !
 
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