‘‘अल्ला हो अकबर, अल्ला हो अकबर’’
‘‘अल्ला हो अकबर, अल्ला हो अकबर’’
मग़रिब की अज़ान–दादी जान मुसल्ला लेकर अपने कमरे में चली गयीं, अम्मी वज़ू के लिए गुस्लख़ाने की तरफ जाने लगीं, और आपा ने दुपट्टा सर पे रख लिया लेकिन मुन्ना इस सबसे ग़ाफिल अपने बूढे़ नौकर बाबू मियां को ताकता रहा, जिसके दोनों हाथ पापा के दुमकटे कुत्ते के चाटे हुए बर्तन को तेजी से मांजने में मसरूफ थे। आज अम्मी ने बेचारे को कैसी डाँट पिलायी, उसे ज़लील कहा, कमीना कहा, हरामज़ादा कहा, महज़ इसलिए कि वो पापा के दुमकटे कुत्ते को दूध दिये बगैर अस्र की नमाज़ पढ़ने मस्जिद चला गया था।
‘‘अल्ला हो अकबर, अल्ला हो अकबर’’
‘‘लाइलाहा इल लल्लाह’’ –अज़ाम ख़त्म हो गयी।
मुन्ना हैरान था कि आज उसके बूढे़ नौकर बाबू मियाँ ने अज़ान की आवाज को अनसुना कर दिया था, अज़ान के एहतराम में काम छोड़कर कुछ देर के लिए साकित न हुआ था और न ही मामूल के मुताबिक उसने अज़ान के खात्मे पर दुआ माँगी थी, मुन्ना से रहा न गया।
‘‘बाबू मियां अज़ान हो गयी’’
बाबू मियां खामोश रहा।
‘‘बाबू मिया आज तुमने दुआ न माँगी ?’’
बाबू मियां खामोश रहा।
‘‘बाबू मियाँ नमाज़ न पढ़ोगे क्या?’’
बाबू मियाँ खामोश रहा।
‘‘बाबू मियाँ तुम न कहते थे, नमाज़ न पढ़ने वाले को अल्लाह के दरबार में जवाब देना होता है।’’
बाबू मियाँ ख़ामोश रहा।
‘‘बोलो बाबू मियां, तुम क्या जवाब दोगे, अल्लाह के दरबार में?’’
बाबू मियाँ की पेशानी पे बल पड़ गये, भवें एक दूसरे से मिल गयी, चेहरा सुर्ख हो गया और आँखें छलक पड़ीं, ‘‘ कह दूँगा, जिंदगी काट के चला आया गनीमत है’’