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अपनेपन का सरूर
लड़की वालों के यहाँ सारा काम निपटा कर मैं और मेरे मामा का बेटा जगदीप, हमारे गाँव की इस गाँव में व्याही लड़की शरनजीत के घर की तरफ चल पड़े।
शरनजीत के घर परिवार से हमारी बड़े लम्बे समय से पटती नहीं थी। हम बहुत बार थाने -कचहरी जा चुके थे। इसलिए मैं सुबह से, जब से बारात आई थी, दुविधा में था कि मैं शरनजीत के घर पत्तल लेकर जाऊँ कि नहीं। बचपन में मैं और शरनजीत इकट्ठे पढ़े थे। भाई–बहिनों जैसी आत्मीयता के बारे में सोचते हुए मैंने भावुक होकर बिचौलिए को कहकर पत्तल मँगवा ली। वैसे भी आनंद कारज के बाद हर तरफ पीने–पिलाने का दौर चल रहा था। पीकर व्यक्ति अक्सर दिल के पीछे लग भावुक हो जाता है।
हमें पत्तल लेकर आया देख शरनजीत की खुशी सँभाले नहीं सँभलती थी। वह मुझसे, मेरे घर के एक–एक सदस्य की खैर–सुख पूछती रही।
‘‘अच्छा वीर आप बैठो, मैं अभी लाई चाय बनाकर।’’ शरनजीत चौके की तरफ जाते हुए बोली।
‘‘ब्याह में आने वालों को चाय नहीं पिलाते,’’ बाहर से आए हजूरसिंह ने हमारे साथ हाथ मिला, अंदर से बोतल मेज पर लाकर रखी। दारू के साथ पल भर में ही खाने को कितना कुछ शरनजीत ने लाकर रख दिया। खाने पीने का दौर चल पड़ा। शरनजीत हमारे पास आ बैठी और छोटी–छोटी बातें करने लगी। उसने बचपन की बातें छेड़ ली। छोटी–छोटी यादें। छोटे–छोटे सम्बन्ध। अपनत्व भरी भावुक बातें। हजूरसिंह हमें लगातार पैग डाले जा रहा था।
चलते हुए हजूरसिंह ने सड़क वाला पैग कह कर पैग और डाल दिया।
‘‘अच्छा वीरजी, जब भी इधर आया करो, मिलकर जाया करो। आपका गाँव में आपसी लाख गिला शिकवा हो गाँव की बेटियाँ तो साँझी होती हैं। मुझे तो चाव चढ़ गया भई आपको देखकर, यह घर आपके स्वागत के लिए हरदम खुला है।’’ शरनजीत खुशी की लय में मग्न बोले जा रही थी।
‘‘सरूर आ गया गली में आ कर।’’ मेरे मुँह से निकला।
‘‘हाँ! पर यह सरूर दारू से ज्यादा बहिन के अपनत्व व प्यार का था।’’ मेरे दिल की बात जगदीप के मुँह से निकल गई थी।
 
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