गोपाल तथा कमलिनी नवदम्पती। गोपाल सहृदय। उन दिनों वेश्या–सुधार–आंदोलन ज़ोरों पर था। काफी रात गए वह घर लौटता, किन्तु उसका मन वेश्या–सुधार के बजाय उनके नाच–गानों में ज्यादा रमा रहता था।
उस दिन भी गोपाल रात के एक बजे घर पहुँचा था। समूचा घर देख आया, फिर भी कमलिनी का कहीं कोई पता न चला। वह परेशान हो उठा।
फिर उसने गली में जाकर देखा। नौकर रामू बीड़ी पी रहा था। उसे भीतर बुलाकर, गोपाल ने पूछा, ‘मालकिन मायके तो नहीं गई?’’
‘‘गई होंगी!’’
अचानक उसकी नजर टेबल पर पड़े कमलिनी के पत्र पर गई। उठाकर उस पढ़ने लगा।
पत्र यों था, ‘‘.....अपनी सहेलियों द्वारा आपकी असलियत का मुझें पता चल गया है। मैं न तो आप की राह का काँटा बनना चाहती हूँ, न ही आपको बार–बार झूठ बोलना पड़ेगा। मैं अपने मायके जा रही हूँ....।’’
पत्र आद्यन्त पढ़कर कमलिनी को बुला लाने के लिए नौकर रामू को चंद्रवरम जाने का आदेश दिया और अपनी ओर से कमलिनी से माफी माँगते हुए क्या–क्या बोलना चाहिए, समझाते हुए, नौकर से बोला, ‘‘कहना, मालिक की अक्ल ठिकाने पर आ गई है। वह अब पछता रहे हैं। वे कहते हैं, आइंदा कभी भी वेश्याओं के नाच–गाने देखने–सुनने नहीं जाएँगे।’’
रामू बोला, ‘‘मैं यही कहूँगा, मालिक! शहर में सोने की पुतली–सी वेश्या आई हुई है। उसे देखकर मालिक बहक गए हैं।’’
रामू की बात सुन, मारे गुस्से के गोपाल अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। रामू गली में दौड़ पड़ा।