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लघुकथाएँ - देश - घनश्याम अग्रवाल
कमानीदार चाकू
शहर की हवा बड़ी खराब थी। इतनी खराब कि किसी भी वक्त कोई भी घटना घट सकती थी। आगजनी, खून–खराबे और लूटमार की घटनाएँ आम घटती थीं।
वह जब भी घर से निकलता, उसकी पत्नी उसके घर लौटने की सौ–सौ मन्नतें मानती। जब तक वह घर न लौट आता, उसकी पत्नी को चैन न पड़ता। उसका एक पैर घर के भीतर और दूसरा बाहर होता।
वह भी अब घर से बाहर निकलते हुए, अपनी जेब में कमानीदार चाकू रखता और सोचता–अगर मेरे काबू बुरा आदमी आ गया तो एक बार तो उसकी आँतें निकालकर रख दूँगा।
वह सोचता–सोचता जा रहा था कि अचानक बाजार का एक मोड़ आने पर उसका स्कूटर किन–किन करता सड़क पर से फिसल गया।
दूसरे सम्प्रदाय के दो अधेड़ उम्र के आदमी उसकी तरफ दौड़े–दौड़े आए। वह डर गया, पर हिम्मत करके फौरन उठा। शरीर पर कई जगह आई खरोंचों की परवाह किए बिना उसने तेजी से अपना हाथ अपनी जेब में डाला, पर वहाँ कुछ नहीं था।
‘‘बेटा, चोट तो नहीं लगी।’’ -एक ने उससे पूछा।
‘‘नहीं’’- उसने धीरे से कहा और स्कूटर को खड़ा करके स्टार्ट करने लगा।
‘‘बेटा, तेरा चाकू।’’ दूसरे आदमी ने कुछ दूरी पर उसका गिरा चाकू उठाकर उसे पकड़ाते हुए कहा।
उसने एक नजर दोनों आदमियों की तरफ देखा और नजरें झुकाकर चाकू पकड़ लिया और तेजी से स्कूटर स्टार्ट करके चला गया।
 
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