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लघुकथाएँ - देश - जगदीश कश्यप
सूखे पेड़ की हरी शाख
रेट तय कर वह रिक्शे में बैठ गया और सोचने लगा–- बेटे का सामना कैसे कर पाएगा। वह तो आना ही नहीं चाहता था पर रतन की माँ बोली थी–- "देखो तुम एक बाप हो। बेटे ने शादी के लिए हामी भर दी । शादी करने यहीं आएगा। मान लो वहीं घर बसाकर वह हमें भूल जाए, तब हमारा क्या होगा? सरिता तो पराए घर की है । एक न एक दिन तो उसकी शादी करनी पड़ेगी। कब तक वह नौकरी कर हमें पालती रहेगी? पूरे सत्ताइस साल की हो चुकी है।"
"उतरो साहब,यही फाइन रेस्टोरेण्ट है।" --उसे झटका–सा लगा। रिक्शे से उतर वह न्यॉन साइन–बोर्ड पढ़ने लगा। पहले नीले अक्षर, फिर लाल। धुंधलके में लकदिप रोशनी में उसने देखा कि लोग शीशे वाला दरवाज़ा धकेल कर अन्दर जा रहे थे ,तो कोई–कोई बाहर निकल रहा था। अपने सादे लिबास और सिर पर बंधे साफ़े को देख एकबारगी उसे ख़ुद पर शर्मिदगी हुई। उसे अचानक याद आया। वह कड़कता हुआ बोला था–- "मैं एक मामूली बाबू, कहाँ तक भुगतूँ इस हरामज़ादे की बदनामी? सारा दिन आवारागर्दी और पार्टी पॉलिटिक्स । क्या मैंने इसलिए पढ़ाया था इसे! जी.पी. फण्ड में अब बचा ही क्या है? निचोड़ दिया है मुझे दोनों लड़कियों की शादियों ने।"
तभी वह कार के हॉर्न से चौंक गया और हड़बड़ाकर एक ओर हट गया। कार में से एक युवक उतरा और उसने आँखों से चश्मा उतारा। बूढ़े आदमी को सामने खड़ा पाकर युवक के चेहरे पर कुछ उभर–सा आया। रतन ने अपनी जो फोटू भेजी थी उससे यह युवक कितना मिलता–जुलता लगता है। उसे फिर याद आया। उस दिन तो हद हो गई थी। पता नहीं कौन से झगड़े में रतन कमीज–पैण्ट फड़वा आया था और चेहरे पर ख़रौंचे साफ दीख रही थीं।
"निकल जा...अभी निकल मेरे घर से ! ख़ानदान की नाक कटवा दी इसने!" और उसने ज़ोर से एक लात मारी थी....
"पिताजी आप यहाँ... क्या माँ ने भेजा है?"
वह भौचक्का रह गया। रतन बड़े अदब से पिता को रेस्टोरेण्ट के भीतर ले गया और अपने केबिन में ले जाकर रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा दिया–- "आप आराम से बैठो, पिताजी। देखो, आपके नालायक बेटे ने कितनी तरक्की की है! आने में तकलीफ़ तो नहीं हुई? मैं थोड़ा बिजी था, वरना ख़ुद आता।"
पिता के दिल में आया कि वह अपने सपूत के आगे गिरकर जार–जार रो पड़े।
 
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