उस मरियल–से क्लर्क ने जेब से महीने–भर का वेतन निकाल चारपाई पर रखा और सिरहाने के नीचे से लेनदारों की लिस्ट निकाली। जोड़–घटाव करने के बाद उसके पास सिर्फ़ पचास रुपए बचे थे। पचास रुपए के आगे खड़े पूरे इकतीस दिन! कमरे में वह अकेला था, पर बच्चों की जरूरतों और पत्नी की हसरतों की लिस्ट फिल्म की रील की भाँति उसकी आँखों के आगे तेजी से घूमने लगी। पत्नी की लिस्ट पर लकीर मारते हुए उसे थोड़ी पीड़ा हुई, पर उसको इस बात का अहसास था कि ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ था। शशि की अधघिसी पैंट ने उसका हाथ पकड़ लिया। लेकिन पप्पी के टूटे हुए बूट ने एक ही झटके से उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया। अभी वह कोई फैसला नहीं कर पाया था कि पत्नी अंदर आ गई और पचास का नोट उठाकर बोली, ‘‘मुझे नहीं पता, ये तो मैं नहीं दूँगी।’’
‘‘मेरी बात तो सुन!’’
‘‘बिल्कुल नहीं।’’ पत्नी उसी रौ में बोली।
‘‘सर्दियाँ शुरू हो गई हैं और पप्पी....’’
‘‘पप्पी के बूट से ज्यादा जरूरी आपकी दवाई है।’’
आगे वह कुछ नहीं बोला। उसने गले में से उठती खाँसी को जबरन रोक लिया। कहीं उसे खाँसते देख, पत्नी डॉक्टर को बुलाने ही न चली जाए।