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लघुकथाएँ - देश - ज्योति जैन
शिक्षा
नंदिता का नियम ही बन गया था-रोज ऑॅफिस से लौटते हुए उस ठेले वाली से ‘सीजनल फ़्रूट्स’ लेते आने का ।आते वक्त कभी चीकू, लीची, बेर, संतरे ?, कभी जामुन, फाल्से ऐसे ही फल ज्यादा होते थे, जो वह एक बार रुककर ले ही लेती थी। धीरे–धीरे दोनों में बिना नाम का ही, पर एक परिचय -सा हो गया। कभी–कभी वह उसे समाझइश भी दिया करती थी। स्वच्छ रहा करो, पॉलिथिन की थैलियाँ मत रखा करो.....आदि.....। उस फलवाली के पास अक्सर 4–5 लड़कियाँ व एक बिल्कुल छोटा बच्चा नजर आता था।
उस दिन जामुन छाँटते हुए नन्दिता ने उससे पूछ ही लिया–
‘‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’
‘‘छह छोरियाँ है बेन जी’’ वह कुछ विद्रूपला से बोली।
‘‘ये सातवाँ........ नन्दिता ने लेटे बच्चे की ओर इशारा करते हुए पूछा.......लड़का है क्या?’’
‘‘कोई नी! ये ई तो आखरी की छोरी है।’’
‘‘क्या तुम लोग भी.......नन्दिता ने उपदेश दिया–इतनी लाइन लगा लेते हो, और फिर अभावों में जीते हो। अरे! लड़का ही चाहिए तो दूसरे में ही जाँच करा लेनी थी। मुझे देखो! मैंने जाँच कराई और एक बेटी के बाद एक बेटा है।’’
‘‘देखो बैन जी’’ वो जामुन तोलती बोली–‘‘मैं तुम्हारे जैसी होसियार तो काई नी। और मेरे मरद से भोत परेसान हूँ कि उसको छोरा चिए। पन अपनीज छोरियों को किसतर मार दूँ? अब लेन लगाएगा तो वे ही भुगतेगा पन में तो छोरी को नी मार सकूँ–चाहे पेट में चाहे बाहर।’’ कहते हुए उसने जामुन नन्दिता के झोले में डाल दिए।
जामुन डाले या शिक्षा उडेल दी? नन्दिता सोचती रह गई।
 
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