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लघुकथाएँ - देश - दर्शन मितवा
औरत और मोमबत्ती
‘‘अच्छा तो इधर आ।’’ वह औरत को घर के अन्दर वाले कमरे में ले गया।
‘‘देख,यहाँ कितना अंधेरा है....और जब मुझे उजाले की ज़रूरत पड़ती है...’’ उसने जेब से दियासिलाई निकाली और सामने कार्निश पर लगी मोमबत्ती जला दी।
कमरे में उजाला बिखर गया।
‘‘देख, जब तक मुझे उजाला चाहिए....यह जलती रहेगी।’’
वह औरत उसकी ओर देखती रही।
‘‘जब मुझे इसकी जरूरत नहीं होती तो....’’ कहते ही उसने मोमबत्ती को फूँक मार दी।
कमरे में अँधेरा पसर गया।
उस औरत ने उसके हाथ से दियासिलाई की डिबिया ली और सामने कार्निश पर लगी मोमबत्ती फिर से जला दी।
आदमी उसकी ओर देख रहा था।
‘‘पर, औरत कोई मोमबत्ती नहीं होती।’’ उस औरत के होंठ हिले, ‘‘जिसे जब जी चाहे जला लो और जब जी चाहे बुझा दो।’’
दोनों की नजरें मिलीं।
‘‘.....समझे! और, मैं भी एक औरत हूँ, मोमबत्ती नहीं!’’
अब आदमी चुप था।
औरत के चेहरे पर अनोखा जलाल था।
और, अब मोमबत्ती जल रही थी।
 
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