उजाड़–से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की को मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बन कर आई है। रात को स्टेशन पर ही रहेगी। प्रात: वहीं से ड्यूटी पर उपस्थित होगी। मैं गाँव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले घट चुकी एक–दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।
‘‘आपका रात को यहाँ ठहरना उचित नहीं है। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबन्ध कर देता हूं।
जब हम गाँव में से गुज़र रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया ‘‘मैं इस चौबारे में रहता हूँ।’’ अटैची ज़मीन पर रख वह बोली, ‘‘थोड़ी देर आपके कमरे में ही ठहर जाते हैं। मैं हाथ–मुँह धोकर कपड़े बदल लूँगी।’’
बिना किसी वार्तालाप के हम दोनों कमरे में आ गए।
‘‘आपके साथ और कौन रहता है?’’
‘‘मैं अकेला ही रहता हूं।’’
‘‘बिस्तर तो दो लगे हुए हैं!’’
‘‘कभी–कभी मेरी माँ आ जाती है।’’
गुसलखाने में जाकर उसने मुँह–हाथ धोए। वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।
‘‘आपने रसोई भी रखी हुई है?’’
‘‘यहाँ कौन–सा होटल है!’’
‘‘फिर तो मैं खाना भी यहीं खाऊँगी।’’
बातों–बातों में रात बहुत गुज़र गई थी और वह माँ वाले बिस्तर पर लेट भी गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठ कर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था। परंतु उसमें बसी औरत गहरी नींद सोई थी।
मैं सीढि़याँ चढ़कर छत पा जाकर टहलने लग गया। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लग गई।
‘‘जाओ सो जाओ, सुबह आपने ड्यूटी पर हाजि़री देनी है।’’ मैंने कहा।
‘‘आप सोए नहीं?’’
‘‘मैं बहुत देर तक सोया रहा हूँ।’’
‘‘झूठ।’’
‘‘.......’’
वह बिल्कुल मेरे सामने आ खड़ी हुई, ‘‘अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आपको उनींदे नहीं रहना था।’’
‘‘नहीं–नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,’’ और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया।