पाँच वर्ष हरे गए रीना के अन्तर्जातीय विवाह को। सुख–दुख, तीज–त्योहार में ही रीना मैके जाती है। सम्बन्ध औपचारिक ही है; लेकिन इधर पिता के बीमार पड़ने के कारण रीना हफ्ते में एक–दो बार मैके आ जाती है, पिता की सेवा–टहल करती है। पिता का चट्टानी हृदय मोम -सा पिंघल गया। किसी को पता ही नहीं चला, वसीयत से बेदखल की गई रीना को वसीयत बदलने से जायदाद में हिस्सा मिल गया। बाप–बेटी का प्यार ज्वार–सा देखकर बेटा दुखी हो गया। एक दिन अपनी पत्नी से कहने लगा, ‘‘सुनो, यह सब हो क्या रहा है? हमने तो इतनी कोशिशें करके पिता जी से रीना के सम्बन्ध तुड़वाए थे, लेकिन सब गड़बड़ हो गया।’’
हारे हुए जुआरी- सी पत्नी बोली, ‘‘अब तो सब कुछ खत्म हो गया, तुम तो देखते ही रहे, पिता जी ने बिटिया रानी को उसके हिस्से की जायदाद दे दी है।’’ पुन: ऊँचे स्वर में बोली, ‘‘यह सब तुम्हारी ही गलती है, बहिन का आना–जाना रोकना था!’’
‘‘अरे, मैं कैसे रोक सकता हूँ बाप से बेटी को मिलने के लिए ?वह तो सेवा करने आती थी और जीत गई, वैसे रीना हमेशा जीती ही है, शुरू से चाहे खेल हो, डिबेट हो, बहस हो, वह क्लास में भी हमेशा फर्स्ट आती रही है। वह इस खेल में भी जीत गई।’’
बाहर दरवाजे पर खड़ी रीना सब कुछ सुन रही थी, आँखों से आँसू बह निकले थे, धीरे -से कमरे के अन्दर आकर बोली, ‘‘भैया, यह तो सही है मैं हमेशा जीती हूं, लेकिन यह खेल नहीं, बाप–बेटी का प्यार है और जीत हमेशा प्यार की होती है, नफरत की नही!’