वह अत्यन्त उदास, बेचैन ऑफिस से लौटा और बिना कपड़े बदले ही ईजीचेयर में धँस गया। चेहरे से लग रहा था कि जैसे वह किसी निर्णय पर पहुँचने के प्रयास में एक खास ‘अपनेपन’ से लड़ रहा है। तभी व्हीलचेयर लुढ़काती सीमा आ गई। उसने उसे घूर कर देखा। बोला, ‘‘सीमा, क्या तुम अपने मायके जाना चाहोगी?’’
‘‘क्यों?’’ अपने पति की आवाज उसे अनचीन्ही–सी लगी, ‘‘यहाँ रहने में मैं ज्यादा खुश हूँ, कम–से–कम घर की देख–भाल करती रहूँगी। मैं तुम्हारे किसी काम में बाधक नहीं बनूँगी, मगर मुझे बोझ....’’ सीमा की आँखें भर आईं।
विनोद ने बात काटकर कहा, ‘‘तुम्हें बोझ कतई नहीं मानता हूँ बल्कि पहले–सा प्यार भी करता हूँ। तुम्हारी बेहतर देखभाल व इलाज वहाँ से ज्यादा अच्छा हो सकेगा।’’
‘‘मुझे मत भेजो। मेरे गरीब माता–पिता....।’’
‘‘मुझ पर विश्वास नहीं है न?’’
‘‘है। अपने से भी अधिक। जिसने बिना एक पाई लिए मुझे ब्याहा है, जो आज भी मेरे परिवार का खर्च उठाए हुए है, उस देवता जैसे पति पर भला मैं विश्वास न करूँगी....किन्तु आज जब मैं लकवाग्रस्त हूँ ,तो चाहती हूँ तुम्हारी खुशी देखकर तुम्हारे सामने मरूँ।’’ वह सिसक उठी।
‘‘सीमा, यही सब स्थितियाँ मेरे हाथ–पैरों की, यहाँ तक कि दिमाग की बेडि़याँ बनती जा रही हैं। लोग कहने लगे हैं कि दहेज के लालच में मैंने ही तुम्हें ऐसी दवा दी है जिसमें तुम अपंग हो गई। कल मुझ पर यह इल्जाम भी लगेगा कि मैंने तुम्हें मार डाला।’’
‘‘जबकि मैं कहती हूँ कि....’’
‘‘तुम्हारी या मेरी कौन सुनता है! सुनो, मैंने अपना ट्रांसफर भी करा लिया है दूर, और तुम....’’ कहते–कहते वह रुक गया।
‘‘मैं मायके जाने को तैयार हूँ।’’ सीमा ने दृढ़ स्वर में कहा ओर व्हील चेयर घुमाकर जा रही थी कि विनोद ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘पगली, तुम मेरे साथ चलोगी।’’
वह खुशी के मारे कुर्सी से लगभग उठ खड़ी हुई।