गुरमुख सिंह व उसकी पत्नी विकासशील विचारों के थे। उनके विवाह के बारह सालों बाद भी, उनके कोई औलाद नहीं हुई थी। उन की इच्छा थी कि परमात्मा एक बच्चा दे दे जो उनके बुढ़ापे का सहारा बने। वह लड़के–लड़की में कोई फर्क नहीं समझते थे।
और एक दिन उनके दरवाजे के आगे लोगों ने नीम बँधी हुई देखी। नीम बँधा देखकर सभी के दिल में खुशी–सी भर जाती कि चलो बारह वर्ष बाद भी बेटा हो जाने से इनकी जड़ लग गई है।
सायं रिश्तेदारी के दस–बीस स्त्री–पुरुष मिलकर बधाई देने के लिए उसके घर आए।
‘‘बधाई! भाई गुरमुख सिंह।’’
‘‘आपको बधाई। रब्ब आपको भी बधाए।’’
‘‘भई ,बेटा तो रब्ब सभी को दे। बेटों के बिना तो जग में नाम ही नहीं रहता।’’
‘‘पर मेरे घर तो बेटी पैदा हुई है, मेरे लिए तो यही बेटा है।’’
‘‘नीम तो खुशी प्रकट करने के लिए बाँधते हैं?’’
‘‘मुझे भी बेटी पैदा होने की बेटे से ज्यादा खुशी है। आजकल लड़के–लड़की में फर्क ही कहाँहै।’’
अब गाँव वालों के चेहरे उदास हो गए। धीरे–धीरे बाहर आ रहे लोग कह रहे थे,‘‘देख लो, अभी बेवकूफों की कोई कमी नहीं, पैदा हुई लड़की और बाँध दिया नीम।’’