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लघुकथाएँ - देश - पवन शर्मा
कुन्दन
कमरे में लाल रंग का जीरो वॉट का बल्ब जल रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे पूरे कमरे में सुर्ख लाल खून बिखरा हुआ हो। दीवार घडी में पौने बारह बजे थे। अचानक पलंग पर उसने करवट बदली। पत्नी चौंक गई,‘‘क्यों....सोए नहीं क्या?’’
‘‘नींद नहीं आ रही है।’’ वह बोला, और सोई हुई पत्नी की तरफ करवट बदल ली।
‘‘क्यों?’’
‘‘बस, यों ही।’’
‘‘कोई कारण तो होगा ही।’’
‘‘बाबूजी की चिट्ठी आई है आज। मकान गिरवी रखा था, उसकी मियाद पूरी हो गई है। अगर पैसे न चुकाए तो मकान नहीं रह पाएगा। लिखा हैं कि बारह हजार की व्यवस्था कर दो ;नहीं तो पुश्तैनी मकान हाथ से निकल जाएगा।’’
‘‘गिरवी ही नहीं रखना था मकान।’’
‘‘क्यों न रखते गिरवी, लोगों को पता कैसे चलता कि ठाकुर गजेंद्रपाल सिंह ने अपनी इकलौती बेटी की शादी किसी रईस से कम नहीं की है.......इज्जत तो बनाए रखनी थी उन्हें....सिर्फ़....खोखली इज्जत....’’ उसके स्वर में व्यंग्य था, ‘‘और मुसीबत हमारे सिर पर पटक दी। उधर भैया से भी बारह हजार की माँग की है। अरे, अपना बैंक बैलेंस ही छह -सात हजार का होगा। बाकी के कहाँ से दे दूँ उन्हें?’’
पत्नी पलंग पर उठकर बैठ गई, ‘‘ऐसा करो, मेरे पास जो जेवर हैं, उन्हें बेच दो और बाबूजी को पैसे दे दो।’’
‘‘नहीं अंजु, तेरे पास तो थोड़े से ही जेवर हैं, अगर वे बिक जाएंगे, तो तेरे पास क्या बचेगा? वे तो तेरी शोभा की चीजें हैं।’’
‘‘औरत की शोभा तो उसका पति होता है। और फिर जेवर औरत की शोभा के लिए थोड़े ही होते है ;वे तो ऐसे ही वक्त के लिए होते हैं! सच, कल बेच देना,नही तो पुश्तैनी मकान हाथ से निकल जाएगा।’’
वह कुछ नहीं बोला। लाल रंग के जीरो वॉट के बल्ब में उसे अपनी पत्नी का चेहरा कुन्दन की भाँति चमकता दिखाई दिया।
 
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