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कंगन
नैन्सी और वीना सरकारी दफ्तर में कई सालों से काम कर रही हैं। पिछले कई सालों से प्रतीक्षा कर रही थी कि बोनस मिले तो दोनों सहेलियाँ एक साथ हाथजड़ाऊ कंगन लें ;लेकिन हर साल कोई न कोई आवश्यक खर्च आ पड़ता और कंगन रह जाते। इस वर्ष वीना ने कहा, ‘‘नैन्सी, जो भी हो, इस बोनस में कंगन जरूर लिए जाएँगे, पिछले साल तुमने अपनी बहन की फीस भर दी थी, मैंने अपनी सास को दाँतों का सेट लगवा दिया था। कितने सालों से कंगन नहीं बन पा रहे हैं।’’
कड़े की मोहक डिजाइन और कल्पना में खोते हुए नैन्सी ने कहा, ‘‘हाँ वीना, हम कंगन जरूर लेंगे, इस बार मैं स्वयं को लेकर अवश्य दूँगी। मुझे स्वयं पर तरस आने लगता है, इच्छाओं को मारने की भी हद होती है।’’
तय हुआ कि कंगन दीपावली से पहले ले लिए जाएँ।
काशी ज्वैलर्स की दुकान पर बहुत–से कंगन देखे गए, लेकिन जो पसंद आता, पहुँच से बाहर होता, जो बोनस के रुपयों में आ सकता, पसंद नहीं आता।
खीझकर दोनों दुकान से बाहर आ गई। वीना ने भेलपूरी खरीदी ओर नैन्सी के हाथ में थमाती हुई बोली, ‘‘नैन्सी, तुम कह रही थीं, तुम्हें किचन में ‘लिंटर डलवाना है!’’
‘‘हाँ, और तुम कह रही थीं कि छोटे भाई को कोई प्रोफेशनल कोर्स करवाना है। ऐसा करते हैं, मैं ‘लिंटर’ डलवा लेती हूँ , तुम भाई की फीस दे दो....कंगन ‘आर्टीफिशियल’ ले लेते हैं, असली जैसे ही तो लगते हैं, लेकर लॉकर में रखने से क्या फायदा?’’
एक थकी–हारी,गुमसुम निगाह से दोनों ने एक–दूसरे को देखा और ठहाका लगाकर भेलपूरी खाने लगीं।
 
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