जाड़े के दो–दो स्वेटर वाले दिन थे। कँपकँपी थी कि बंद होने का नाम ही नहीं लेती थी। शिब्बू आया। ढंग के कपड़े भी न पहने था। काँप रहा था। मैं उठी। उनका मफलर उसे दे दिया। वे अब उसका प्रयोग न करते थे।
काम करने का बाद शिब्बू चला गया खुशी–खुशी। उसका चेहरा चमक रहा था। मफलर को उसने लपेटा न था, बस, तहकर... हाथों में गुफियाये ही चला गया था।
मैं भी खुश थी, चलो बेकार पड़ी चीज का सदुपयोग तो होगा। अगले दिन वह फिर आया। आना ही था उसे। मैं इंतजार में थी, पर मुझे निराशा हाथ लगी।
सब कुछ पूर्ववत् था। ठंड और ज्यादा बढ़ गयी थी। शिब्बू की वेशभूषा जस–की–तस थी। मफलर गायब था। कितने चित्र खींच रखे थे मैंने, मफलर लपेटे शिब्बू कैसा लगेगा?
मुझे खीज हुई, ये साले जैसे हैं... वैसे ही रहेंगे। चलने लगा तो पूछा, ‘‘मफलर कहाँ है मिस्टर?’’
कुछ न बोला वह। बस हँस दिया। अंदर तक चाक कर देने वाली हँसी। उसके चेहरे से लगा था, वह कुछ कहते–कहते रुक गया है। मैं कुछ और पूछूँ वह भाग गया। अगले दिन मैं फिर इंतजार में थी, शायद टोकने का कुछ परिणाम निकले?
वह न आया। समय गुजरा। वह फिर भी न आया। उसे कोसते हुए मैं सफाई में स्वयं जुट गयी। ऐसे ही एक दिन और गुजर गया। ढेरों बुरा सोच मारा था मैंने। शिब्बू की कोई खोज–खबर ही न थी।
गहराती शाम थी। द्वार पर खटका हुआ। शायद वे आ गये... सोचते हुए दरवाजा खोला। शिब्बू के पिता थे।
‘बीवीजी, शिब्बू को सर्दी लग गयी है। कुछ दिन नहीं आ पायेगा...’
शिब्बू की बीमारी के बारे में सुनकर मुझे दु:ख हुआ था। गहरा दु:ख। मेहनती लड़का था। आज्ञाकारी। मेरे मुख से फिसला था, ‘‘कोई बात नहीं। खर्चे की जरूरत हो तो बताना।’’
‘‘आँ हाँ।’’ कहकर शिब्बू के पिता चले गये थे।
मैं देर तक देखती रही थी उन्हें। गहरी आत्मीयता के साथ उन्होंने शिब्बू को दिया मफलर लपेट रखा था।