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बड़े साहब
आज हरिया बहुत खुश था। तीन चार दिन की भाग–दौड़ के बाद आखिर पैसे निकलवाने की मंजूरी मिल ही गई थी। हर वर्ष ऐसा होता था। मंजूरी मिलने पर वह बड़े बाबू की शरण में जाता था जहाँ कुछ दे कर ही रुपए निकलते थे। इस ‘कुछ’ में बड़े साहब का भी हिस्सा था, ऐसा बड़े बाबू कहते थे।
इस बार हरिया ने सोचा था कि क्यों न बड़े साहब से ही मिला जाए और सीधी बात की जाए। यह सोच कर वह बड़े साहब के दफतर की ओर चल पड़ा। ‘‘किसी भी काम के लिए सीधे बड़े साहब से मिले’’ की तख्ती पढ़ कर उसका हौसला बढ़ा।
‘‘मे आई कम इन सर’’ हरिया ने डरते–डरते पूछा। दफ़्तर में पानी पिलाने का कार्य करते यह वाक्य उसने सीख लिया था।
‘‘यस’’
मैं वाटरमैन हरिया !
“हाँ कहो”, साहब ने बिना उसकी ओर देखे कहा।
“साहब, ये मेरा छोटे से लोन का बिल था–आपके साइन हो जाते तो?”
“लाओ।”
फुर्ती से हरिया ने बिल आगे किया, साहब ने साइन किए।वह लौटने लगा।
सुनो, “साहब ने कहा।”
जी, हरिया ठिठक गया। उसे लगा अब साहब उससे पैसे भी माँग सकते हैं अथवा बिल भी लटका सकते हैं।
इधर आओ–साहब ने जोर देकर कहा तो हरिया उनके बिल्कुल पास जा खड़ा हुआ।
अच्छी पगार है तुम्हारी–कपड़े साफ–सुथरे पहना करो, धोते नहीं क्या इन्हें? ये लो–इससे साबुन खरीद लेना– आइंदा जब आओ तो कपड़े धुले होने चाहिए। कह कर साहब ने पचास का नोट उसे थमा दिया।
हरिया को कुछ नहीं सूझा। वह साहब के पाँव पकड़ कर बोला।-साहब आपके नाम पर बड़े बाबू हर वर्ष मुझसे पैसे ऐठते रहे। आप तो देवता आदमी हैं -कहते हुए उसकी आँखें भर आईं।
दफ़्तर से बाहर निकलते हुए हरिया सोच रहा था- काश! वह पहले ही बड़े साहब से मिला होता। कही–सुनी बातें सुन कर अपना नुकसान करता रहा था।
उधर दफ़्तर में बैठे–बैठे बड़े साहब सोच रहे थे–काश! ये हरिया और हरिया जैसे न जाने कितने सीधे उस तक पहुँच पाते। न जाने ऐसा कब तक चलता रहेगा?
 
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