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ब्राह्मण
पंडितजी कहीं से यजमानी करके लौट रहे थे। उस दिन अच्छी बारिश हुई थी। जहाँ -तहाँ पानी के गे भरे पड़े थे। सड़क किनारे की नालियाँ तो नदियों की तरह बह रही थीं।
अचानक पंडितजी की नजर नाले से जरा ऊपर कीचड़ में सने सूअर के बच्चे पर पड़ी। शायद उसकी माँ उसे भाग्य भरोसे छोड़ अन्य बच्चों की रक्षा के लिए सुरक्षित स्थान में चली गई थी। क्रिं- क्रिं करता वह बच्चा ऊपर चढ़ने में सक्षम नहीं था, तभी तो वह अपने परिवार से छूट गया था। वैसे भी छह इंच की ऊँचाई नाले का पानी कभी भी बढ़ सकता था। नाले के सम्पर्क में आने वाले स्थान में भी वर्षा नाले के पानी को बढ़ा देती!
पण्डितजी को दया तो आई पर सूअर का बच्चा सोचकर आगे बढ़ गए। वे ज्यों–ज्यों आगे बढ़ते त्यों–त्यों उनके मन में एक अनजानी-सी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी । हृदय कहता -क्या ब्राह्यण का यही कर्त्तव्य है कि सूअर का बच्चा देखकर उसे मरने के लिए छोड़ दे और यदि गाय या बकरी का होता तो उसे बचा ले ! इसी उधेड़बुन में पंडितजी करीब आधा मील आगे आ चुके थे।
अन्त में मन की दुविधा कम हुई । पण्डित जी तेज़-तेज़ कदमों से लौट पड़े । सूअर के बच्चे को जीवित देखकर उन्होंने राहत की साँस ली और फ़ुर्ती से बच्चे को निकाला। इस बीच बच्चे की माँ दूसरे बच्चों को सुरक्षित स्थान में रखकर वापिस आ गई थी। वह पंडितजी को आभार भरी नजरों से देखती हुई बच्चे को उठा ले गई ;अन्यथा वह पंडितजी को काटने दौड़ती।
इस बीच पुन: तेज बारिश आ गई। पंडितजी कीचड़ से सने भीगते -भीगते घर पहुँचे। रात के करीब दस बज गए थे । बारिश में भीगने से उन्हें बुखार आ गया। फिर भी आज उनका मन बेहद शान्त था ।आज उनका विवेक मर गया होता, तो वे ब्राह्यण कहलाने योग्य न रहते।
 
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