हर्ष के साथ आश्चर्य हुआ। लादू भाई यहाँ कैसे! दूर से वे बुजुर्ग शर्तिया लादू भाई लग रहे थे। वही औसत कद, इकहरा बदन, सफेद बाल, सरपट चाल और खादी का धोती–कुर्ता। कोई फर्क नहीं। यहाँ तक कि आँखों पर चश्मा भी नहीं। किंतु वे लादू भाई नहीं थे। एकटक उन्हें ताकता रहा। कदाचित वे टोक देते। यूँ आँखें फाड़ कर क्यों घूर रहे हो! पर वे खुद में मगन मेरे पास से निकल गए। मैं मुस्कुराया। लादू भाई होते तो टोक देते। बच्चों को चाय नहीं दूध पीना चाहिए! ठेले पर चाय का खाली गिलास रखते हुए चेतना जगी। अरे! अब मैं बच्चा कहाँ। छब्बीस साल का जवान हूँ। वह तो दस–बारह साल पुरानी बात। लादू भाई वाला मोहल्ला छोड़कर इतनी दूर इस इलाके में आने के बाद उस तरफ जाने की फुरसत इस विकट विकास जीवी महानगर में कहाँ से निकालता। इतने बरसों में तो लादू भाई बहुत बूढ़े हो गए होंगे। अलबत्ता बचपन से मैंने उन्हें ऐसा ही देखा। कोई फर्क नहीं। संभव है अब भी वे ऐसे ही हों।
करीब चार साल बाद मुझे फिर लादू भाई मिले। अर्थात् दिखे। वे भी लादू भाई नहीं थे। बस में सफर करते हुए वे वयोवृद्ध पहली झलक में स्पष्ट लादू भाई लगे थे। मैं पीछे वाली सीट पर बैठा था। और वे खचाखच भरी बस में आगे वाले दरवाजे से चढ़े थे। कंडक्टर द्वारा उन्हें पीछे बुलवा कर अपनी सीट पर बिठाया। वे बहुत प्रसन्न हुए, आशीर्वाद दिया। मैं मुस्कुराया। यदि वाकई लादू भाई होते तो खुश होकर कहते, मोहल्ले के बच्चों को संस्कारित करने के अपने प्रयत्न में वे सफल रहे! लादू भाई अब किस हाल में होंगे। सोचते हुए मैं भावुक होने लगा।
तीनेक बरस बाद सब्जी मंडी में झोला भर सब्जी उठाए जिन बुजुर्ग का मैंने दूर से दर्शन किया, वे लादू भाई कदापि नहीं हो सकते। यह जानते हुए भी संभावना जगी। कहीं वे सचमुच लादू भाई निकले तो! और मैं तेज चलकर उन तक पहुँचा। बहुत मनाने पर संकोच के साथ उन्होंने झोला मुझे थमाया। भीड़भाड़ से निकलकर उन्हें रिक्शा में बिठाते हुए मुझे सुख मिला। साथ ही लादू भाई बहुत याद आए। मैं झुँझलाया। क्या यूँ ही उम्र भर मुझे लादू भाई का भ्रम होता रहेगा। उनके घर जाकर पता लगाना चाहिए। वे अब तक बैठे हैं या परलोक सिधार गए। मन फिर पलटा। लादू भाई यूँ ही जिंदगी भर मिलते रहें तो हर्ज क्या है। किंतु उनके प्रति उमड़ी प्रबल जिज्ञासा को तृप्त करना जरूरी था।
लादू भाई खाट पर लेटे थे। मुझे देखते ही उनकी आँखें चमक उठीं। उठते हुए उत्साह से मेरा हाथ पकड़ लिया, ‘‘बैठ नवीन! आज तू ठीक आया!’’ उनकी रहस्य भरी मुस्कान मानो कह रही थी कि इस लंबे अंतराल के दौरान हम बराबर मिलते रहे हैं। मुझे एकटक निहारते हुए उनके चेहरे पर सुख–संतोष की आभा थी। जाने क्यों, मुझे लगा पिछले बरसों में वे सब मुलाकातें लादू भाई के साथ ही हुई हैं। या फिर इन्हें उनकी पूरी जानकारी हैं जब तक वहाँ रहा, उनकी नजर बराबर मुझ पर टिकी रही। विदा लेते समय बोले, ‘‘यूँ ही मिलते रहना!” चेहरे पर वही गहरी मुस्कान।
मैं चकित था और उलझन में भी। उन्होंने ‘‘आते रहना!’’ क्यों नहीं कहा। लौटते हुए मैं उतावला हो रहा था। लादू भाई फिर कब मिलेंगे।