साँझ हो गई थी। सूरज दूर पश्चिम की तरफ डूब चुका था, पर अभी अँधेरा नहीं हुआ था। चारों तरफ सलेटी रंग फैला हुआ था। सारे काम से थका–हारा एक किसान अपने घर लौटा। उसके सिर पर चारे की गाँठ थी और हाथों में पैना। चारे की गाँठ टोके( घास काटने की मशीन) के आगे फेंक, उसने बैलों के गले से पंजाली उतारकर उन्हें नाँद पर बांधा।
‘‘आज काफी देर कर दी।’’ रसोई में बैठी घरवाली ने पूछा।
‘‘वह कीकर वाला खेत जोत रहा था। सोचा, अब जोतकर चलता हूं सारा....क्या छोड़कर जाना है।’’ उसके चेहरे की तरह उसकी आवाज से भी थकावट झलक रही थी।
‘‘यह पानी रखा है, गर्म...हाथ...पाँव धो लेने थे।’’
‘‘पशुओं को चारा डाल दूँ पहले, जिन्हें सारा दिन जोता है।’’ उसको एहसास नहीं था कि पशुओं के साथ वह भी सारा दिन चलता ही रहा है।
उसकी युवा बीवी रोटी बनाने लगी और वह टोका चलाने लगा। चारे की गाँठ कुतरकर, उसमें तूड़ी मिला, बैलों की नाँद में डाली। बैल चारा खाने लगे और वह पानी बर्तन में डाल हाथ–पाँव धोने लगा। उसके दोनों बच्चे कभी के सो चुके थे।
गहरी रात गए, वह रोटी खाकर फारिग हुआ। बैलों को फिर और चारा डाला और पंजाली के रस्से ठीक कर, पैना ठीक जगह पर सँभाल, वह चारपाई पर लेटते अपनी घरवाली से कहने लगा, ‘‘सुबह जरा जल्दी जगा देना, मुर्गे की बाँग के साथ....वह रोही वाला खेत खत्म करना है।’’
सुरमे से भरी पलकों से उसकी बीवी ने उसकी तरफ झाँका, पर वह करवट लेकर सो चुका था। और खिले तारों की तरफ ताकती वह रात जैसी एक आह भरकर रह गई।