‘‘याद आया।’’ गऊशाला से भी निराश निकलते इन्दर ने पत्नी को बताया–‘‘अपना बशीर था न.....वही, जो हाल के दंगों में मारा गया, उसकी गाय शायद गर्भिणी है।’’
‘‘छि:!’’
‘‘कमाल करती हो!’’ इन्दर तमतमागया–‘‘बशीर के खूँटे पर बँधकर गाय, गाय नहीं रही, बकरी हो गई? याद है, दंगाइयों के हाथों से उस गाय को हलाल होने से बचाने के चक्कर में ही तो जान गई उस बेचारे की!’’
‘‘....’’
‘‘दो–चार, दस–पाँच दिन का समय बीच में दिया होता तो कहीं और भी तलाश कर सकते थे हम।’’ उसकी उपेक्षापूर्ण चुप्पी से क्षुब्ध होकर वह पुन: बोला–‘‘शुभ मुहूर्त है, आज ही से शुरू करना होगा। पड़ गई साले ज्योतिषी के चक्कर में।’’
चुप रही माधुरी। क्या कहती। सन्तान–प्राप्ति जैसे भावुक मामले में बेजान पत्थर और अव्वल अहमक तक को पीर–औलिया मानकर पूजने लगते हैं लोग। यह तो गाय थी, सजीव और साक्षात्। बशीर की ही सही। घर पहुँचकर उसने हाथ–मुँह धोए। लबालब तीन अंजुरी–भर गेहूँ का आटा एक बरतन में उलटा, तोड़कर गुड़ का एक टुकड़ा उसमें डाला और साड़ी के पल्लू से उसे ढाँपकर चल पड़ी बशीर के घर की ओर।
गाय बाहर ही बँधी थी, लेकिन गर्भिणी होना तय करने से पहले उसको कुछ देना माधुरी को ज्योतिषी की सलाह के अनुरूप नहीं लगा । सो साँकल खटखटा दी। सूनी आँखों और रूखे चेहरेवाली बशीर की विधवा ने दरवाजा खोला। देखती रह गई माधुरी–यह थी ही ऐसी या....इन्दर तो एक बार यह भी बताते थे कि बशीर का बच्चा इसके पेट में है!
‘‘क्या हुक्म है?’’
‘‘मैं माधुरी हूँ, इन्दर की पत्नी।’’ कभी गाय तो कभी बशीर की बीवी के पेट को परखती माधुरी जैसे तन्द्रा से जाग उठी–‘‘आटा लाई हूँ....ज्यादा तो नहीं, फिर भी, अपनी हैसियत–भर.......तुम्हारे लिए जो भी बन पड़ेगा, हम करेंगे बहन!’’ बरतन के ऊपर से पल्लू हटाकर उसकी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा–‘‘संकोच न करो.....रख लो....बच्चे की खातिर।’’
बशीर की विधवा ने फटी हुई चूनर को पेट पर सरका लिया और फफककर चौखट के सहारे सरकती हुई धीरे–धीरे वहीं बैठ गई।