एक कमरा कह लो, या छोटा घर।
वहीं सास–ससुर, वहीं पर बड़ी ननद, वहाँ ही छोटा देवर और एक तरफ पति–पत्नी की दो चारपाइयाँ।
बहू को दौरा पड़ने लगा। पलों में ही हाथ–पैर ढीले हो जाते। हाथों की उँगलियाँ मुड़ जातीं। ओठों का रंग नीला पड़ जाता। हकीमों की जड़ी–बूटियाँ देखीं, डॉक्टरों के टीके भी कराए ,पर फायदा कुछ न हुआ।
किसी ने एक फकीर के बारे में बताया। सात मील पर उसका डेरा था। पति ने साइकिल पर उसे बिठाया और चल दिया। रास्ते में एक छोटा–सा बगीचा आया। हैंडल चुभने का बहाना लगाकर पत्नी उतर गई। दोनों बैठ गए। जी भर कर बातें कीं। फिर उनकी आत्माएँ एक हो गईं। दोनों को रोकने–टोकने वाला कोई नहीं था, जो मन में आया किया।
‘‘आज की यात्रा से फूल–सा हल्का महसूस कर रही हूँ, बाबा जी, जैसे कि कोई रोग ही न हो।’’ डेरे पर पहुँचकर उसने कहा।
‘‘तो हर बुधवार, बीस चौकियां भरो बेटी। दवा–दारू की जरूरत नहीं। महाराज भली करेगा।’’